सोमवार, 15 अप्रैल 2024

घोषणापत्र

हर तरफ़ चुनाव का माहौल है. छोटी-छोटी मोहल्ला स्तर की पार्टियां आज अपना-अपना घोषणापत्र ऐसे बांच रहे हैं मानो केन्द्र में सरकार इनकी ही बनने वाली है. अभिनेता और राजनेता में एक समानता रही है, इन दोनों का कॉन्फिडेंस लेवल बहुत हाई होता है. अगर मेरी शक्ल-सूरत नवाजुद्दीन भाई से मिलती होती, तो बहुत सम्भव है मैं डिप्रेशन में चला जाता. ये तो बन्दे का कॉन्फिडेंस ही है जो बन्दा आज बॉक्स ऑफिस पर एक से एक हिट फिल्में दे रहा है. महान अभिनेता बच्चन साहब को कितने रिजेक्शन झेलने को मिले लेकिन बन्दे में आज भी जो चीज कूट-कूट कर भरी है, वो है कॉन्फिडेंस. कुछ-कुछ यही हाल छुटभैया राजनेताओं का है. जब मंच पर माइक पकड़ कर खड़े होते हैं तो लगता है जैसे लाल किले की प्राचीर से पूरे देश को संबोधित कर रहे हैं. ये बात अलग है कि इनकी मोहल्ला गोष्ठी में गिने-चुने वो लोग ही शिरकत करते हैं, जिनकी एक दिन की दिहाड़ी पक्की होती है. उन्हें नेता जी के उद्बोधन से कुछ लेना-देना नहीं होता. 

लेकिन इसमें कोई गलत बात नहीं है. अभिनेता और नेता रगड़-घिस के ही बनते हैं. किरदार हो या मंच, चाहे छोटा हो या बड़ा, अपने रोल को जो बखूबी निभाता है, वो ही भविष्य में बाकी सबसे आगे निकल जाता है. महापुरुष लोग पहले ही फरमा चुके हैं - मोर स्टडी मोर कन्फ्यूजन, नो स्टडी नो कंफ्यूजन. तो देश का ये हाल है कि ज्ञानी जन संशय में हैं और अज्ञानी कॉन्फिडेंस के सागर में गोते मार रहे हैं. ये बात हर क्षेत्र में लागू होती है. जो अपनी फील्ड के पीरों (Peers) की दिखाई लीक पर चलते रहे, वो मंजिल से भी आगे निकल गए. समय से आगे चलने वाले लोगों को समाज ने निपटा दिया. दरबारी समझदार टाइप के लोगों को मालूम था कि अपने आकाओं की इच्छानुसार धरती चपटी बता कर दरबार में सिक्का जमाया जा सकता है. भू को गोल बताने वालों के नसीब में सूली नहीं आएगी तो क्या सोने के सिक्के आएंगे. जब कोई कहता है कि दुनिया बहुत तरक्की कर गई है तो, वाणभट्ट का व्यक्तिगत मानना है कि भले ही आदमी चांद पर पहुंच गया लेकिन उसकी बेसिक फितरत नहीं बदली. आज तक जितनी शेर-ओ-शायरी दुनिया जहान में हुई है, उसमें इश्क से ज्यादा इंसान के छल-फरेब का ज़िक्र है. इश्क की शायरी भी वही मकबूल हुईं जहां इश्क में धोखा मिला हो या वो परवान न चढ़ पाया हो. अब तो लोगों का मानना है कि मकबूल इश्क सब्जी के थैले पर ख़त्म होता है. सो व्यवसाय कुछ भी हो, इंक्लूडिंग प्रेम (कुछ लोगों के लिए ये भी एक धंधा है), यदि कोई सीधी-सरल राह पर चलेगा तो घाटे में ही रहेगा. तो नेता लोग इससे कैसे बच सकते थे. उनका तो फुल टाइम काम ही है जनसेवा, जिसमें कोई नियमित तनख्वाह नहीं होती. इसलिए उसकी मजबूरी बन जाती है कि बगुला भगत बन के रहें. जनता की गरीबी हटाते-हटाते, ये कब अमीर हो जाते हैं, स्वयं इनको और इनके चमचों को पता ही नहीं चलता. चमचों की योग्यता ही इतनी होती है कि ये पतीला नहीं बन सकते. शेर के साथ रहने पर सियार को शिकार की चिन्ता नहीं करनी पड़ती. उसी उद्देश्य से ये पूरी वफादारी के साथ नेता जी के साथ लगे रहते हैं. नेता अगर पार्टी बदल ले तो ये भी पाला बदलने में देर नहीं लगाते. सबसे खास बात है कि सब के सब सिद्धांत वाली राजनीति की दुहाई देते नहीं अघाते. 

आम चुनाव की घोषणा के साथ ही सभी नेताओं को जनता की याद आने लगी है. सबकी जनसेवा करने की अदम्य इच्छा इसी मौसम में जागृत होती है. हर नेता अगले चुनाव के बाद अपने क्षेत्र को स्वर्ग बना देने के लिए लालायित दिख रहा है. उसके लिए वो एक से एक लोक-लुभावन वायदे कर रहा है. उसे मालूम है कि लहर एकतरफा है लेकिन जब मंच और माइक मिल जाए तो उसे बस फ्री-फंड की जबान ही तो हिलानी है. टेंट-वेंट भी कौन सा इनकी जेब से आता है. कुछ सट्टे बाज टाइप के लोगों को रेस के घोड़े पर दांव लगाने के बजाय नेता पर दांव लगाने में मजा आता है. जिस तरह कुछ फ्लॉप फिल्में लोग इसीलिए बनाते हैं कि उनकी काली कमाई खप जाए, उसी तरह कुछ धन्ना सेठ (अपनी बिरादरी के) नेता पर इसीलिए पैसा फूंक देते हैं, ताकि ब्लैक मनी हिल्ले लगाई का सके. वर्ना कुछ नेताओं के चाल-चलन-वचन को देख-सुन के शक होता है कि भला कौन इनको प्रमोट कर रहा है. आपको भले शक हो जाए लेकिन नेता का अंदाज वही रहता है, कि अगर जीत गए तो दुनिया बदल देंगे. आप की नहीं, अपनी. और यहीं पर नेता का कॉन्फिडेंस काम आता है. यदि वही कॉन्फिडेंस लूज कर जायेगा तो कौन उस पर पैसा लगाएगा.

अलग-अलग पार्टियां अलग-अलग घोषणापत्र घोषित कर रही हैं. और उनके नेता पूरे दम-खम से अपने-अपने दावे कर रहे हैं. जब काम में दम न हो तो बात में वजन नहीं रहता. इस कमी को पूरा करने के लिए लोग आवाज़ में पूरा दम लगा देते हैं. साउंड सिस्टम पर इको लगा कर जब नेता जी को अपनी आवाज़ अपने ही कानों तक पहुंचती है, तो उनका जोश उफान मारने लगता है. इस चक्कर में दो-चार वादे एक्स्ट्रा अपनी तरफ से कर जाते हैं जिनका घोषणापत्र में जिक्र तक नहीं होता. कॉन्फिडेंस का आलम तो ये होता है कि नेता जी को मालूम है कि जब हर बार वो ख़ुद अपने वादे भूल जाते हैं तो जनता क्या ख़ाक उन्हें याद रखेगी. अलबत्ता किराये की जनता को जनता मानना भी सही नहीं है. आजकल तो अख़बार और न्यूज़ चैनल्स का ज़माना है. यदि नेता की पार्टी लोकल है, तो लोकल मीडिया पर तो उसकी धौंस होनी ही चाहिए. उनको बता दिया जाता है कि वो कैमरा नेता जी पर ही फोकस रखें, ताकि टीवी की ऑडियंस को पता न चले कि सुनने वालों में सिर्फ़ टेंट-कुर्सी वाले ही थे. 

यदि आप एकदम फुरसत में हैं, तो दो-चार पार्टी के घोषणापत्र उठा लीजिए और उन्हें पढ़ने-समझने का प्रयास कीजिए. यदि वो समझ आ गए तो आपको सबमें एक साम्य देखने को मिलेगा. सबके निशाने पर गरीब-मजदूर-किसान ही मिलेगा. जिसके उत्थान के लिए सभी दल-बल सन सैंतालीस से लगे हुए हैं. सभी पार्टियां देश को सुखी और समृद्ध करने पर आमादा लगती हैं. महिलाओं और वंचितों को न्याय दिलाना सबका उद्देश्य है. हर एक के घोषणापत्र में हर किसी के लिए कुछ न कुछ ज़रूर है. दावा तो ये भी है कि जुल्म-ओ-सितम की रात का अन्त हो जाएगा. सबके लिए छत होगी पक्की और भूख जैसी चीज विलुप्त हो जायेगी. सरकारी नौकरी के इंतजार में निरन्तर बढ़ती हुई बेरोजगारी और बेरोजगार सबके टारगेट पर हैं. सब के सब घोषणापत्र बेरोजगारी के उन्मूलन के लिए प्रतिबद्ध दिखते हैं. कुल मिला कर सबका घोषणापत्र देख के लगता है कि इन सबकी विचारधारा तो एक है. सभी देश का विकास चाहते हैं. सभी जनता की समृद्धि चाहते हैं. सभी के इरादे बहुत अच्छे हैं. लेकिन जब वे एक-दूसरे के विरुद्ध बोलते हैं तो कहते हैं कि ये दो विचारधाराओं की लड़ाई है. उन्हें कॉन्फिडेंस है कि काम दिखा कर वोट नहीं मांगा जा सकता तो जनता को बरगला कर कंफ्यूज कर दो. दो दिन की छुट्टी में सबके घोषणापत्र खंगालने के बाद इस नतीजे पर पहुंचा कि देश के नेता देश का विकास करने को तत्पर हैं लेकिन देश की जनता ही अपना विकास नहीं चाहती इसलिए देश विरोधी सरकार को चुन लेती है. सभी इस बार गलती की पुनरावृत्ति रोकने के लिए जनता को जगाने में लगे हैं. सभी पार्टियों को लगता है कि जनता को जितने सब्जबाग (लॉलीपॉप) दिखाओगे, जीत की सम्भावना उतनी बढ़ती जायेगी. 

सभी मेनिफेस्टो का अध्ययन और मनन करने के बाद वाणभट्ट ने सोचा कि क्यों न एक सार्वभौमिक टाइप का मेनिफेस्टो बनाया जाए जिस पर देश और काल का प्रभाव न पड़े. चुनाव दर चुनाव आएं, लेकिन घोषणापत्र बदलना न पड़े. जब सभी, नेता और जनता, मुफ़्त का चन्दन घिसना चाह ही रहे हैं तो क्यों न उन्हीं के हिसाब से मेनिफेस्टो तैयार किया जाए. उसके सेलियंट बिन्दु नीचे लिखे हुए हैं. 

1. देश में पैदा होते ही हर व्यक्ति को पेंशन मिलेगी

2. पढ़ाई-लिखाई-भोजन-भवन सब फ्री

3. स्वास्थ्य सेवा सभी के लिए एकदम मुफ़्त 

4. हर हाथ को निश्चित काम

5. काम करने की आजादी, जो कर सकते हो वो करो

6. नहीं कर सकते तो मत करो, पेंशन तो है ही

7. जो करेगा उसे तनख्वाह मिलेगी पेंशन के अलावा

8. उद्यमियों को पूर्ण वित्तीय सहयोग और प्रोत्साहन

9. समस्त व्यय का वहन करदाताओं द्वारा

10. जाति-धर्म-भ्रष्टाचार समाप्त करके देश का विकास एक मात्र लक्ष्य

मेरे विचार से ये एक नवोन्मेषी, विकासशील और सर्वस्वीकार्य मेनिफेस्टो होना चाहिए. किसी को और कुछ फ्री में चाहिए तो सजेस्ट कर सकता है. इस मेनिफेस्टो के सभी कॉपीराइट, लेफ्ट है. जो चाहे, जहां चाहे इसे अपना सकता है. बल्कि मेरा मानना है कि सभी देशों को एक कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के तहत इस एजेंडे को लागू करवाने का प्रयास करना चाहिए ताकि पृथ्वी पर किसी को गरीबी का सामना न करना पड़े. धर्म-जाति के नाम पर वैमनस्य का अन्त हो और भ्रष्ट आचरण की आवश्यकता ही न हो, आम आदमी को इससे ज़्यादा और क्या चाहिए.

म्यूचुअल फंड की तरह, छोटे-छोटे शब्दों में एक वैधानिक चेतावनी भी देनी जरूरी है. इतनी सब पंजीरी लेने के बाद, किसी ने भी कोई भी ऐसा काम किया जो देश की अखंडता, अस्मिता और राष्ट्रीयता के विरुद्ध पाया गया, तो बेटा ऐसा तोड़ा जाएगा कि समझ नहीं आएगा कि खाएं कहां से और निकाले कहां से.

- वाणभट्ट

शनिवार, 13 अप्रैल 2024

साइन्स

किसी भी विषय का व्यवस्थित ज्ञान ही विज्ञान है. चूंकि विज्ञान तार्किक होता है, तो हर कोई अपने विषय को वैज्ञानिक तरीके से व्यक्त करने में लगा है. हिस्ट्री तो हिस्ट्री, पॉलिटिक्स को भी विज्ञान सिद्ध करने के प्रयास किये जाते रहे हैं. संस्कृत जैसी भाषा गणित की तरह समृद्ध हैं, इसलिए भाषा को भी विज्ञान का दर्जा दिया गया है. हमारे देश में अंग्रेजों के आने के पहले तक विज्ञान हुआ करता था. लेकिन उनके आने के बाद चूंकि सारी शिक्षा व्यवस्था ही अंग्रेजी ओरियेंटेड हो गई तो विज्ञान को भी साइंस बनना ही था. इसके साइंस बनते ही देश का प्राचीन ज्ञान-विज्ञान विलुप्त प्राय हो गया. चार सौ साल की दासता में हमने ही जब अंग्रेजी को विद्वतजनों की भाषा मान लिया तो सारी की सारी पढायी अंग्रेजी पर शिफ्ट हो गई. सारा का सारा विज्ञान, साइंस बन के रह गया. जो कुछ भी अंग्रेजी में कहा या लिखा गया, उसे विश्वसनीय मान लिया गया. संभवतः किसी देश को गुलाम बनाने और बनाए रखने के लिए उसकी आत्मा को मारना जरूरी है, ये मुगलों और अंग्रेजों दोनो को पता था. तो एक ने फ़ारसी थोपी तो दूसरे ने अंग्रेजी. और भाषा किसी भी देश की आत्मा होती है. आज स्थिति ये है कि हमारे देश में हर विषय के ज्ञानी, अंग्रेज़ी में ही विमर्श करते हैं ताकि उनकी अंतरराष्ट्रीय साख बन सके. ऐसे में विज्ञान का साइंस हो जाना लाजमी भी था.

जब से बाबा जी ने कोर्ट में माफ़ी माँगी है कुछ लोगों की बाँछे खिली हुयी हैं. ये बात अलग है कि पूरी मेडिकल साइन्स एनाटॉमी के सम्पूर्ण ज्ञान के बाद भी आज तक ये नहीं खोज पायी कि बाँछें शरीर के किस भाग में पायी जाती है. लेकिन आश्चर्य की बात है की सबसे ज्यादा उसी प्रोफेशन के लोगों की खिली हैं. उन्हें बाबा पूरा का पूरा लाला लगता है. जब इतनी मेहनत, समय और पैसा खर्च करके किसी ने एलोपैथी में मेडिकल की डिग्री पायी हो तो उसका आयुर्वेद से वैमनस्य जायज़ भी है. बचपन से उसका और उसके परिवार का सपना था कि समाज सेवा के लिये मेडिकल जैसे नोबल प्रोफेशन को चुने. एण्ड यू नो, मेवा आलवेज़ फ़ॉल्लोज़ सेवा. तो सेवा के पीछे की मेवा आज के मेडिकल प्रोफेशन की सच्चाई बन चुकी है. मेवे के लिये आज सेवा करने को लोग उद्धत दिख रहे हैं. प्रेगनेंसी से लेकर मरने से पहले वेंटिलेटर तक की यात्रा कोई भी व्यक्ति बिना डॉक्टर के नहीं कर सकता. जब सिजेरियन बच्चा देश-काल के अनुसार कभी भी धरा पर अवतरित किया जा सकता है तो आपको बस पंडित जी से शुभ लग्न-मुहूर्त बिचरवाना है. वैसे भी नॉर्मल डिलीवरी पचास हज़ार तो सिजेरियन डेढ़ लाख दे कर जाती है. तो भला किसका मन सेवा करने को प्रेरित नहीं होगा. लिहाजा पूरे शहर में होटल कम और हॉस्पिटल ज्यादा हो गये हैं. और हॉस्पिटल्स में होटल्स वाली सभी सुविधायें उपलब्ध हैं. इसीलिए देश के स्वनाम धन्य महापुरुषों की ओर जब ईडी और सीबीआई नज़र फेरती है तो उनको मालूम होता है कि कौन सी बीमारी उन्हें अस्पताल ले जायेगी और कौन सी जेल. जिस भ्रष्टाचारी के हाथ रिश्वत लेते कभी नहीं काँपे उसको दिल का दौरा पड़ने लगता है. यहाँ साइंस एक विशेष रूप ले लेती है जो आदमी-आदमी में फ़र्क करना जानती है. ये नेता के प्रोफाइल पर निर्भर करता है (सत्ता पक्ष या विपक्ष) कि उसे बीमार माना जाये या बहानेबाज. सिद्ध करने के लिये हाइली क्वालिफाइड डॉक्टर्स का पूरा हुजूम होता है. जो अगर लिख दें कि आदमी मर गया है तो यमराज को धरती पर आना पड़ जाये. इसी साइन्स के आधार पर तो उन्होंने होम्योपैथी और आयुर्वेद को ब्लैक मैजिक या क्वैक या शुद्ध हिन्दी में झोलाछाप की श्रेणी में डाल रखा है. यहीं से मेरा साइंस को लेकर अन्तर्द्वंद आरम्भ होता है. 

विज्ञान आदमी के धरती पर आने से पहले भी था और बाद में भी रहेगा. आपके आसपास जो कुछ भी है या जो कुछ भी घटित हो रहा है उसको समझना-समझाना ही विज्ञान की सहज परिभाषा है. हर देश काल में लोगों ने प्रकृति के रहस्यों को अपने अपने ढंग से देखा-समझा. जैसे-जैसे आदमी का ज्ञान बढ़ता गया, उसकी जिज्ञासा भी बढती गयी. और विज्ञान भी विभिन्न आयामों में विस्तार लेता गया. कुछ पुरानी अभिव्यन्जनायें टूटी, कुछ नयी अवधारणायें बनी. इस तरह कड़ियों से कड़ियाँ जुड़ती गयीं और विज्ञान का चतुर्मुखी विकास होता गया. आज ब्रम्हाण्ड का कोई भी विषय मानव के आधुनिक विज्ञान से अछूता नहीं रह गया है. एक युग की खोज अगले युग का आधार बनती गयी. अपने पूर्वजों, विशेषकर भारतीय पूर्वजों का, वैज्ञानिक ज्ञान कभी-कभी हतप्रभ कर देता है कि बिना आधुनिक यन्त्रों, साधनों और मानकों के कैसे उन्होंने खगोलीय और भूमंडलीय गणनाओं का सटीक अध्ययन कर डाला. भोजन में क्या पथ्य है, क्या अपथ्य, बिना खाद्य प्रमाणीकरण संस्था के कैसे संभव हुआ होगा. भोजन के लिये उपयोगी खाद्य पदार्थों और वनस्पतियों/प्राणियों की एक लम्बी अन्तहीन सूची है. किस पथ्य से शरीर के किस भाग को क्या पोषण मिलेगा, इसका भी भान हमारे पूर्वजों को था. बिना इन्क्युबेटर शेकर, माइक्रोस्कोप, सेंट्रीफ्यूज, एचपीएलसी, स्पेक्ट्रो फोटोमीटर आदि यन्त्रों के विभिन्न वनस्पतियों के पौष्टिक, औषधीय और चिकित्सकीय गुणों का आँकलन, सिद्ध करता है कि विज्ञान ही नहीं, अपने मनीषियों का अन्तर्ज्ञान भी अपने चरम पर रहा होगा. लेकिन उनका ज्ञान सहज सभी को उपलब्ध था क्योंकि उसका उद्देश्य ही जन कल्याण था. यह ज्ञान अनुश्रुतियों और पांडुलिपियों के माध्यम से अगली पीढ़ी तक पहुँचता रहा. हर पीढ़ी इसे समृद्ध करते हुये अगली पीढ़ी को सौंपती गयी. यहाँ व्यक्तिगत स्वार्थ का सर्वथा अभाव था. वसुधैव कुटुम्बकम का पालन करने वाले देश का इतिहास कभी भी विस्तारवादी नहीं रहा. समृद्धि और ख्याति दिग-दिगान्तर में ऐसी थी कि देश सोने की चिड़िया के नाम से प्रसिद्ध था. कबीलाई प्रकृति की विस्तारवादी साम्राज्यों ने लूटने के उद्देश्य से ही देश को दासता की बेड़ियों में जकड़ कर रख दिया. सहस्त्र वर्षों की दासता ने यदि सबसे अधिक हानि पहुँचायी है तो वो है मानवता को. 

गुलामों का न कोई इतिहास होता है, न भाषा, न विज्ञान. उस समय के वैज्ञानिकों (ऋषियों-मुनियों-गुनियों) के अन्वेषण और अनुसन्धान का उद्देश्य लोक कल्याण था इसलिये ज्ञान को लाभ के लिये छापने का विचार कदाचित किसी के हृदय में भी आया हो. विदेशों में तो परिकल्पनाओं के साथ वैज्ञानिकों के नाम जोड़ने की प्रथा बन गयी. जिसने उन्हें अमरत्व प्रदान कर दिया. आवोगाद्रो हों, ओम हों, न्यूटन हों या आर्केमीडीज़, अपनी खोज के साथ अपना नाम जोड़े बिना नहीं रह पाये. विज्ञान में स्वार्थ का आरम्भ भी सम्भवतः यहीं से हुआ हो. चूँकि लिपिबद्ध करने का कार्य हमारे पुरखों ने अगली पीढ़ी के लिये ज्ञान संरक्षण के लिये किया था, उसके किसी अन्तर्राष्ट्रीय भाषा में छापने का तो प्रश्न ही नहीं होता. पश्चिमी देशों की इस बात की तो प्रशंसा करनी ही पड़ेगी कि शोध हो, इतिहास हो या विचार उसके प्रचार-प्रसार के लिये वो उसे न सिर्फ लिखते हैं बल्कि छापते भी हैं. अगर हमारे कुछ महापुरुष यदि विदेश न जाते तो, व्यक्तिवाद को न मानने वाले भारत वर्ष में शायद ही कोई उनको पहचान पाता. ये बात अलग है कि वो दुनिया के सामने वही तथ्य रखते हैं जिसे वो दिखाना चाहते हैं. इसमें इतिहास या विज्ञान को तोड़-मरोड़ के प्रस्तुत करना हो तो उन्हें कैसा गुरेज. वैसे भी शासक का विशेषाधिकार है कि वो सब कुछ अपने हिसाब से लिखता या लिखवाता रहे.   

देश को सबसे ज्यादा नुक्सान हुआ है अंग्रेजी शिक्षा पद्यति के थोपे जाने से. अँग्रेज यहाँ शासन करने के उद्देश्य से आये थे, उनका यहाँ या किसी अन्य देश से भी वापस जाने का इरादा नहीं था. इसीलिए उन्होंने जहाँ भी राज किया वहाँ के इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश किया. शिक्षा भी वो ऐसी देना चाहते थे जो उनके अनुसार और उनके लिये उपयोगी हो. इसके लिये उन्होंने हमारी शिक्षा प्रणाली पर ही आघात किया. अधिक दिन पहले की बात नहीं है, लगभग चार दशक पहले तक, इंजीनियरिंग के सेलेक्शन में अंग्रेजी में क्वालीफाई करने के बाद ही गणित-भौतिकी-रसायन की कॉपी चेक होती थी. जाहिर है हिन्दी मीडियम के वो ही छात्र इंजीनियरिंग में प्रवेश पाते थे जो समृद्ध घरों से सम्बन्ध रखते थे. यही हाल मेडिकल में भी रहा होगा. उच्च शिक्षा की किताबें तो आज भी अंग्रेजी माध्यम में ही उपलब्ध हैं. जिस देश को अपनी भाषा पर गर्व न हो उस देश की अस्मिता को दूसरे देश भला क्यों मान्यता दे. आज़ादी के बाद देश की बागडोर समृद्ध घरों की अंग्रेजी में पढ़ी-बढ़ी पौध के हाथों में स्वतः आ गयी. ये पीढ़ी अंग्रेजों के मूलभूत सिद्धांतों और मान्यताओं पर ही चल निकली. विज्ञान भी वही मान लिया गया जो अंग्रेजी में उपलब्ध था बल्कि ये कहना उचित होगा कि अंग्रेजी को ही विज्ञान मान लिया गया. जो भी अंग्रेजी में छप गया वो ब्रह्मवाक्य हो गया. देश की पुरातन ज्ञान परम्परा को हमारे ही नव शिक्षित-दीक्षित लोगों ने ओब्सोलीट (अप्रचलित) मान लिया. 

बाबा जी को मैं लगभग 1996 से फ़ॉलो कर रहा हूँ. जब ये आस्था चैनेल पर दो घन्टे हायर करते थे. तब भी इनका प्रोग्राम सुबह पाँच से आरम्भ हो कर सात बजे तक चलता था. तब इनका मुख्य विमर्श योगासन-प्राणायाम और इनसे होने वाले स्वास्थ्य लाभ पर हुआ करता था. अलग-अलग शहरों में इनके शिविर लगा करते थे जिनका सीधा या रिकोर्ड किया हुआ प्रसारण बिना नागा 365 दिन आया करता था. बाद में अपने सहपाठी के साथ मिल कर इन्होने आयुर्वेद को प्रतिष्ठित करने का भी काम किया. धीरे-धीरे इनकी लोकप्रियता बढ़ती गयी. इन्होने न सिर्फ चैनेल ख़रीदा बल्कि आयुर्वेदिक दवाओं का काम भी आरम्भ कर दिया. इनका उद्देश्य आज भी अपनी दवाएं बेचने का नहीं होता. ये आज भी आयुर्वेदिक दवाइयाँ बनाने की पूरी विधि बताते हैं. हाँ यदि आपको बनाने में झन्झट लगे तो इनकी फार्मेसी दवाइयाँ भी बनाती हैं. हर शहर में इनके स्टोर्स हैं जिनके माध्यम से ये दैनिक उपयोग की सभी वस्तुओं को उपलब्ध कराते हैं. बताने वाले तो ये भी बताते हैं कि इन्होने ऋषिकेश में गंगा के किनारे से 10-20 चेलों के साथ शुरुआत की थी. आज लोग इन्हें लाला बोलने से नहीं चूकते लेकिन इन्होने योग-प्राणायाम-आयुर्वेद को विश्व में अहम् स्थान दिलाने के लिये अथक संघर्ष किया है. पूरी दुनिया बाबा का लोहा मान रही है. अफ़सोस की बात तो ये है कि जो नहीं मान रहे हैं वे अपने ही लोग हैं, जिन्होंने अंग्रेजी में आधुनिक चिकित्सा विज्ञान पढ़ा है और अपनी पुरातन चिकित्सा पद्यति के बारे में जानने का प्रयास भी नहीं किया है. बाबा का संघर्ष कम हो सकता था यदि आधुनिक मेडिकल साइंस के जानने वाले आयुर्वेद से होने वाले चिकित्सकीय लाभ की पुष्टि करें और उसका समर्थन करें. ऐसे शोध पत्रों को विदेशी जर्नल्स में अंग्रेजी भाषा में छपवायें. निश्चय ही जनकल्याण के इस मिशन के लिये उन्हें व्यावसायिक लाभ के चक्रव्यूह से बचना पड़ेगा. 

मानव जीवन इलाज करने-करवाने के लिये नहीं मिला है. अन्य प्राणियों की तरह हमारा भी जीवन चक्र है. दवाइयों के सहारे सिर्फ जीवित रहना जीवन का उद्देश्य नहीं है. भारतीय दर्शन के अनुसार जीवन, मन, शरीर और आत्मा से मिल कर बना है. अपने मन और शरीर को स्वस्थ रखना हर व्यक्ति की प्राथमिकता होनी चाहिये. नींद-भोजन-व्यायाम के बाद दवाइयों का नम्बर आता है. दवाई चाहे किसी भी पैथी की हों, उनका उपयोग आखिरी विकल्प होना चाहिए. यदि एलोपैथी, होम्योपैथी और आयुर्वेद तीनों चिकित्सा पद्यातियाँ मिल कर काम करें तो निसंदेह ही बहुत सी बीमारियों और उनके इलाज से बचा जा सकता है. कोरोना काल में कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं होगा जिसने काढ़ा न पिया हो चाहे वो कितना भी अंग्रेजी में पढ़ा-लिखा डॉक्टर हो, इंजीनियर हो, वकील हो या न्यायाधीश. प्राणायाम-योग-ध्यान की महत्ता विश्व समझ रहा है. इतिहास बदला तो नहीं जा सकता लेकिन ठीक अवश्य किया जा सकता है. इसके लिये ये समझना आवश्यक है कि अंग्रेजी में लिखी सब बातें विज्ञान नहीं हैं और विज्ञान को इतना उदार बनना ही पड़ेगा कि नये और पुराने ज्ञान को आत्मसात कर सके.

-वाणभट्ट   

रविवार, 7 अप्रैल 2024

टाइम पास

कुछ लोग कर्मयोगी होते हैं. वो कर्म सिर्फ़ और सिर्फ़ इसलिये करते हैं कि बिना कर्म किये उन्हें बहुत खालीपन महसूस होता है. अपने खालीपन को भरने के लिये कुछ न कुछ करते रहना जरूरी है. निस्वार्थ भाव से किया गया काम देश-समाज के लिये होता है. लेकिन ऐसे कर्मयोगी बहुतायत में पाये जाते हैं जिनके व्यक्तिगत स्वार्थ के आगे देश-समाज गौण हो जाते हैं. किन्तु  किसी भी काम को अंजाम देने के पहले पूँजी की आवश्यकता होती है. बहुत से कर्मयोगी धनाभाव के कारण ही समाजसेवी कार्य कर सकने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं. इसलिये हर शाश्वत कर्मयोगी की आवश्यकता होती है एक अदद सरकारी नौकरी की, ताकि उसे देश और समाज के उत्थान के लिए धन का टोटा न पड़े. चूँकि प्राइवेट कम्पनियां शुद्ध लाभ के लिये काम करती हैं, इसलिये उनके यहाँ नौकरी जॉब्स की श्रेणी में आती हैं. प्राइवेट लाला यदि एक पाई अगर खर्च करेगा तो चार पाई कमाने की उम्मीद पालेगा. उसके लिये चाहे आठ घण्टे हों या अट्ठारह, कर्मयोग करना पड़ सकता है. लाभ के अनुसार ही सैलरी में बढ़ोत्तरी या घटोत्तरी सम्भव है. इसीलिये देशप्रेमी भारतीय कर्मयोगी युवाओं में सरकारी नौकरी के माध्यम से देश सेवा करने की तमन्ना पहली पसन्द है. 

दरअसल नौकरी तो सरकारी ही होती है. पैसा देने वाला खर्च करने के लिये देता है और लेने वाले खर्च करने के लिये लेता है. किसी प्रकार का विरोधाभास नहीं. किसी को कुछ बचाना या लौटाना नहीं है. अगर किसी ने वित्तीय कुशलता से कम बजट में काम कर दिया तो इसे अपराध की श्रेणी में रखा जा सकता है. अब चूँकि सरकार का काम ही है रोजगार देना, तो उसने करवाने और करने वालों के बीच एक निरन्तर श्रृंखला बना रखी है. जिसका काम सिर्फ ये देखना है कि काम हो रहा है या नहीं, काम हुआ या नहीं, और हुआ तो उसमें किसी प्रकार की अनियमितता  या गड़बड़ी तो नहीं हुई. किसी भी कार्य के निष्पादन के लिये प्रत्येक काम पूरी श्रृंखला से गुजरता है. समय के साथ इनकी ताकत इतनी बढ़ गई है कि ये अपनी इच्छा अनुसार काम को रोक दें, लटका दें या जांच ही बैठवा दें. कालांतर में इसी को लालफीताशाही की संज्ञा दे दी गयी. चूँकि इनका काम, काम करना नहीं है बल्कि काम पर नियंत्रण या निगरानी करना होता है, इसलिये इनकी न किसी प्रकार की जिम्मेदारी होती है, न जवाबदेही. किन्तु इन लोगों को प्रपोजल स्टेज से लेकर एक्जिक्यूशन तक बहुत ही सजग रहना पड़ता है. अपने साफ-सुथरे एयरकंडीशंड ऑफिस में बैठ कर निगरानी करना आसान काम नहीं है. धृतराष्ट्र के संजय की तरह दिव्य दृष्टि विकसित करना पड़ती है. इसका सबसे आसान तरीका है कि कर्मयोगी को टटोलो और बार-बार टटोलो. कुछ ऑब्जेक्शन लगाओ, थोड़ा डिटेल मांगो, परचेज रूल और ऑडिट का हवाला दो, अगर कुछ किया होगा तो कुछ दे कर ही जायेगा. बिना जोर दिये भला कोई किसी को क्यों समझेगा.

एक बार नौकरी मिल जाये तो कर्मयोगी भी बड़े-बड़े प्लान बना कर सामाजिक विकास और उत्थान में लग जाते हैं. उन्हें ऐसा लगता है कि इसके पहले किसी ने कोई काम किया ही नहीं और किया भी तो बस बजट का 10 टका ही उपयोग में लाया गया. इनका प्रयास 10 टके को 25 टका तक पहुँचाने का होता है. ये जानते हैं कि धृतराष्टों और संजयों और उनके आकाओं के रहते, 100 टका जनता तक पहुँचा पाना असंभव है. क्योंकि इन सबको अपना-अपना हिस्सा चाहिये ही चाहिये. इसलिये कुछ टके अपने लिये बना भी लिये तो इसमें गलत क्या है. यही कुछ टके हर स्तर पर कर्मयोगियों के लिये एक महत्वपूर्ण प्रेरक शक्ति है. चूँकि श्रृंखला कड़ियों से मिल कर बनी होती है इसलिये श्रृंखला की प्रत्येक कड़ी की अपनी भूमिका होती है. चेन की हर कड़ी को मालूम है कि उसकी क्या भूमिका है. उसे कितना और कहाँ तक सिस्टम को दुहना है कि चेन बनी रहे और चलायमान भी रहे. इस स्वस्फूर्त व स्वप्रेरित श्रृंखला की एक-एक कड़ी को सिस्टम में अपनी उपयोगिता का पूरी तरह ज्ञान होता है. जिस कड़ी में ग्रीस कम होती है, वो आवाज़ करने लगती है. यदि सिर्फ़ ग्रीस लगा देने से वो कड़ी चिंचियाना बंद कर दे तो ठीक, नहीं तो एक कड़ी के लिये पूरी चेन बदलना मँहगा सौदा है. ऐसी कड़ी को चेन से बाहर निकाल देना ही श्रेयस्कर है.

सिस्टम उन्हीं लोगों ने उन्हीं लोगों के लिए बनाया है जो सिस्टम में फिट हो सकें. जैसे शरीर में कोई भी अखाद्य पदार्थ किसी भी रूप में चला जाए तो शरीर उसका वमन कर देता है, वैसे ही चीं-चीं करती चेन की कड़ी जल्दी ही अलग से आइडेंटीफाई हो जाती है. उसको बाहर नहीं करेंगे तो चेन के टूटने का खतरा बना रहता है. मूल रूप से वो ग्रीस रहित कड़ी भी कर्म प्रधान ही थी, बस उसके उद्देश्य में स्वार्थ का पैमाना नहीं था. तभी उसने तमाम प्राइवेट पे पैकेज से ऊपर उठ कर सरकार के माध्यम से समाज सेवा के उत्तरदायित्व का चयन किया. कर्म के बिना उसका भी गुजारा नहीं चलना. कुछ तो वो करेगा ही. चिन्ता की बात ये है कि सिस्टम का अनफिट कर्मयोगी करेगा तो क्या करेगा. सिस्टम में हर व्यक्ति अपनी उपयोगिता बनाये रखने में व्यस्त रहता है. लेकिन समस्या ये है कि अनफिट व्यक्ति अपना समय काटेगा कैसे. सिस्टम में रह कर समय काटना अपेक्षाकृत आसान है.

प्राचीन काल से समय बिताने के लिये वाद-विवाद-अन्ताक्षरी जैसे खेल हुआ करते थे. अन्ताक्षरी भी हरि का नाम ले कर आरम्भ की जाती थी ताकि समय बर्बाद करने के तरीके से किसी प्रकार की गिल्ट फीलिंग न आये. इसलिये प्रभु को भी शामिल करना जरूरी हो जाता है. ये समय बिताने का एक टाइम टेस्टेड सुगम तरीका है लेकिन इसके लिये कम से कम दो लोग तो चाहिये ही. अकेले चने ने आजतक भाड़ नहीं फोड़ा तो अब क्या फोड़ेगा. लेकिन आजकल समय काटने के लिये भी अनेक साधन मौजूद हैं. फुरसतिया लोगों के लिये फेसबुक, वाट्सएप्प, इन्स्टाग्राम जैसे तमाम माध्यम मोबाईल पर ही उपलब्ध हैं. इन्तहा तो तब हो गयी जब एक दिन बंदा कस्टमर केयर के फोन का इंतज़ार करता पाया गया.

-वाणभट्ट 

सोमवार, 1 अप्रैल 2024

बाप

हमेशा की तरह डॉ. सिंह के यहाँ भीड़ लगी हुयी थी. डॉक्टर तीन बजे से पहले नहीं आते थे, लेकिन पेशेंट्स एक - डेढ़ बजे से ही आ जाते थे. छोटा सा वेटिंग रूम तीन बजे तक ठसाठस भर जाता था. कारण ये था कि उनके आने के बाद किसी और का नाम नहीं लिखा जाता था. शर्त ये भी थी कि फोन पर नाम नहीं लिखा जायेगा. और यदि पेशेंट का नाम पुकारा गया और वो अनुपस्थित पाया गया तो उसका नाम लिस्ट में सबसे पीछे चला जायेगा. 

डॉक्टर साहब की पर्सनालिटी किसी फौजी से कम नहीं थी. स्लिम-ट्रिम शरीर. चाल में कसावट. चेहरे पर रुआब. कड़क आवाज़. उनके आने से पहले वेटिंग रूम में भेंड़-बकरी की तरह अटे लोग फुसफुसा कर बात कर लेते थे. लेकिन उनके आने के बाद क्या मजाल कि कोई फुसफुसा भी ले. सबको मोबाइल वाइब्रेशन पर रखने की हिदायत अटेंडेंट्स लगातार देते रहते थे. कुछ बुजुर्गवार फोन के इस फीचर से वाकिफ़ नहीं होते थे. यदि वो पहली बार आये हों तो उनका फोन बज जाता था. लेकिन अगली बार जब वो आते तो किसी न किसी से बोल कर अपना फोन ही स्विच ऑफ़ करवा लेते.

शहर के बहुत ही प्रतिष्ठित डॉक्टर थे तो लोग उनकी सभी आज्ञा को सर-माथे पर लेते. उसूल के पक्के व्यक्ति यदि आपको पसन्द हों तो आप उनके मुरीद बने बिना नहीं रह सकते हैं. हर पेशेंट को स्वयं देखते, बिना किसी असिस्टेंट की सहायता के. अधिकतर प्रश्नों के जवाब पेशेंट को ही देने होते थे. साथ आने वाले अटेंडेंट को बिना इजाज़त बोलने की मनाही थी. दो-एक बार फटकार खाने के बाद हर पेशेंट और उसके अटेंडेंट को पता चल जाता था कि जब वो पूछें तभी बोलना है. अपने थोरो चेकअप के दौरान वो कुछ न बोलते. यदि पेशेंट की परेशानी उनकी स्पेशलाइजेशन की फील्ड से न होती तो पूरे चेकअप के बाद डॉक्टर साहब बुलन्द आवाज़ में अपने रिसेप्शनिस्ट को कहते - नो फ़ीस. ऐसा शायद ही कहीं और आपको देखने को मिले. डॉक्टर्स पहले ही फ़ीस रखवा लेते हैं. यदि उनके विषय की बीमारी न भी हो तो दो-चार टेस्ट और कुछ दवाईयां लिख कर पर्चा पकड़ा देते हैं. किसी भी हालत में फ़ीस वापसी का तो सवाल ही नहीं पैदा होता था.

जब पापा का इलाज इलाहाबाद से कानपुर शिफ्ट हुआ तो उनकी प्रतिदिन सुबह-दोपहर-रात मिला कर करीब 14 दवाइयाँ चल रही थीं. उन्हें भी दवाईयाँ खाने की आदत सी पड़ गयी थी. नियम-संयम के पक्के पिता जी, बिना नागा सब दवाईयाँ खाते रहते. हमारे पहले ही विजिट में सिंह साहब ने सारी दवाईयाँ बन्द करवा के मात्र दो दवाईयों पर सीमित कर दिया. उनका कहना था कि ब्लड प्रेशर और डायबिटीज की दवाइयों के अलावा सभी दवाईयाँ सिर्फ़ मल्टीविटामिन, डिप्रेशन और एंग्जाइटी की हैं. उसके बाद तो पिता जी-माता जी दोनों का इलाज उन्हीं का चलता रहा. मेरी ड्यूटी महीने-दो महीने पर उनके यहाँ ले जाने की रहती. फैमिली डॉक्टर की तरह अब हम उनके साथ कंफर्टेबल हो चले थे. पापा-मम्मी से कभी-कभी वो थोड़ा बहुत मज़ाक भी कर लेते.

अस्सी पार करने के बाद पापा का टहलना थोड़ा कम होता जा रहा था. अपने बचपन से हमने कभी उनको सुबह सोते हुये नहीं देखा था. वो टहल के लौटते थे, तब हम लोगों को जगाते थे. उनके लौटने के बाद कोई बिस्तर पर नहीं रह सकता था. बुढ़ापा कोई बीमारी नहीं है, ये मुझे अपने पेरेंट्स के साथ रहते हुए समझ आ गया था. इलाज से बचना आपकी दृढ़ इच्छाशक्ति में निहित है. जोसेफ़ मर्फी की पुस्तक 'पावर ऑफ़ सबकॉन्शस माइंड' ने मेरे इस विचार की पुष्टि ही की है कि बीमारी की शुरुआत मस्तिष्क से होती है. बाबा रामदेव को फॉलो करने से ये लाभ हुआ कि बड़ी-बड़ी बीमारी में भी देसी नुस्खे कारगर सिद्ध हो सकते हैं. एक ही बीमारी के लिये दो डॉक्टर यदि एक दवा नहीं लिखते तो उनके ज्ञान और कमीशन पर शक होना स्वाभाविक है. जैसे बड़ा वकील और बेंच बदलने से न्याय बदल जाये तो गरीब को न्याय कहाँ मिल सकता है. आजकल डॉक्टर्स व्यक्ति में यह एहसास दिलाने में व्यस्त हैं कि स्वस्थ जीवन दवाईयों के बिना असंभव है. इसीलिए आधुनिक चिकित्सा के सारे ज्ञानी-ध्यानी, बाबा के पीछे लट्ठ ले कर पड़े हैं. चालीस साल के आदमी ने यदि स्वयं को बीमार मान लिया तो समझिए कम से कम अगले तीस-चालीस साल के लिये डॉक्टर को एक नियमित ग्राहक मिल गया. पापा की टहलने के प्रति बढ़ती अनिच्छा मुझे चिंतित करने लगी थी.

उस दिन भी हम लोग नियत समय यानी दोपहर डेढ़ बजे तक क्लीनिक पहुँच चुके थे. पिता जी का चेकअप करके डॉक्टर पर्चे पर नियमित रूप चल रही दवाइयों को पुनः लिख रहे थे. मुझसे रहा नहीं गया - 'डॉक्टर साहब पापा को समझाइये, ये आजकल टहलना कम करते जा रहे हैं. जब भी मौका मिलता है बैठ जाते हैं या लेट जाते हैं'. नाक के अगले हिस्से पर रखे अपने रीडिंग ग्लास के ऊपर से उन्होंने आँखें तरेर कर मेरी ओर देखा. फिर अपनी चारित्रिक टेलीग्राफिक भाषा में बोले - 'बाप कौन है'? मुझे समझ आ गया आज क्लास लगनी तय है. लेकिन तीर निकल चुका था. पापा की ओर मुखातिब हो कर बोले - 'वर्मा साहब आप बाप हैं, ये मत भूलियेगा. जो मर्ज़ी आये वो करिये. चलने का मन हो तो चलिए और सोने का मन हो तो सोइये. बच्चों की बात बिल्कुल मत मानिये. और तुम भी अच्छे से समझ लो कि ये तुम्हारे बाप हैं. दोबारा इनके बाप बनने की कोशिश नहीं करना'. पिता जी और मेरे पास मुस्कुराने के अलावा कोई चारा न था.

उसके बाद से मैं भी अपने बच्चों को अक्सर याद दिलाने का प्रयास करता रहता हूं कि बाप कौन है. लेकिन आजकल के थेंथर टाइप के बच्चों पर इसका असर पड़ता होगा, ऐसी उम्मीद दिखती तो नहीं.

-वाणभट्ट 

रविवार, 24 मार्च 2024

ऑर्गेनिक जीवन

मेडिकल साइंस का और कुछ लाभ हुआ हो न हुआ हो, आदमी का इलाज जन्म के पहले से शुरू होता है और जन्म के बाद मरने तक चलता रहता है. तुर्रा ये है कि मेडिकल साइन्स ने बेइन्तहा तरक्की कर ली है और आदमी की आयु बढ़ा दी है. प्रेग्नेन्सी का पता चलते ही दवाईयों और टेस्ट का एक लम्बा सिलसिला शुरू हो जाता है. सिजेरियन डिलीवरी में जच्चा-बच्चा दोनों सुरक्षित होते हैं. लेकिन नार्मल डिलीवरी में असह्य दर्द का सामना करना पड़ सकता है और ख़तरे की सम्भावना होती है, सो अलग से. दवा कम्पनियाँ जो अपने शोध से, नये-नये फ़ॉर्मूले और मॉलिक्यूल्स  खोज रही हैं, उनकी वसूली तभी हो सकती है, जब अधिक से अधिक लोग ये महसूस करते रहें कि कहीं न कहीं उनमें कोई कमी है, जो दवा के बिना ठीक नहीं होगी. पुराने वैद्य जी के पास कोई जाये तो वो बता दें कि क्या खाओ और क्या न खाओ. लेकिन उनकी शिक्षा न तो अँग्रेज़ी में हुयी है, न उनकी फीस इतनी है कि आदमी को जेब ढीली करने का दर्द हो, तो उन्हें भला कौन दिखाये. लिहाजा डॉक्टर और दवाई की दुकानों पर परचून की दुकान से ज़्यादा भीड़ है. लगता है स्वास्थ्य यहीं बिक रहा है. 

मकान क्या बनवाया सीमेन्ट और धूल से लगभग साल भर लगातार सामना होता रहा. मकान बन के तैयार हो गया, लेकिन एरिया तो डेवलपिंग ही रहा. अगल-बगल के मकान भी बन रहे थे. नये इलाकों में सड़क नाम की चीज़ को गड्ढों के बीच खोजना पड़ता था. स्थिति ये थी कि घर के सामने से एक स्कूटर निकल जाये तो एक किलो धूल घर पर आक्रमण कर दे. शीशे-जाली-परदे होने के बाद भी सुबह तक घर के हर समान-फ़र्नीचर पर धूल की एक मोटी परत जम जाती थी. ऐसे में डस्ट से एलर्जी विकसित हो जाना कोई बड़ी बात नहीं थी. सभी को ऐसा हुआ हो ज़रूरी नहीं, लेकिन जिसकी भी इम्युनिटी थोड़ी कमज़ोर थी, वो चपेट में आ गया. दुर्योग से मेरे रेस्पिरेटरी सिस्टम में दिक्क़त आ गयी. महीना-दो महीना मुलेठी चूसने और च्यवनप्राश खाने के बाद विचार बना कि किसी डॉक्टर को दिखा लिया जाये. अमूमन नयी कॉलोनी शहर के बाहर ही विकसित होती है. इसलिये इलाके के एक एमबीबीएस डॉक्टर से शुरुआत की. जब भी हल्का बुखार-जुकाम-खाँसी होती तो उनके इलाज से आराम मिल जाता. ऐसे ही दो-तीन साल निकल गये. तब विचार बना कि रोज-रोज की खिच-खिच से अच्छा है किसी बड़े डॉक्टर को दिखा लिया जाये. डॉक्टर के बड़प्पन की पहचान उसकी फीस से होती है. हमारे डॉक्टर साहब की फीस तब मात्र दस रुपये थी. अधिक मरीज़ देखने के कारण उनकी डायग्नोसिस का पूरा इलाक़ा कायल था और आज भी क़ायल है. अब करीब बीस सालों में उनकी फीस बढ़-बढ़ा कर सौ रुपये पहुँची है.

एक स्वनाम धन्य अस्पताल के स्वनाम धन्य विशेषज्ञ डॉक्टर के यहाँ एपोइंटमेंट ले लिया गया. उस समय उनकी फीस तीन सौ हुआ करती थी. जितना बड़ा डॉक्टर उतनी बड़ी फ़ीस. उतना ही कम समय पेशेन्ट के लिये. पाँच मिनट में मरीज़ को इतना डरा दो कि बन्दा कुछ समझने से पहले ही इलाज में जुट जाये. चेहरे की भाव-भंगिमा ऐसी कि सालों से मुस्कुराया न हो. उसने बहुत सीरियसली आला लगाया, बीपी नापा, और पर्चे पर कुछ लिखने लग गया. जब उसने सर उठाया तो छः दवाईयों के नाम वो लिख चुका था. कुछ सुबह खानी थीं, कुछ शाम, कुछ सुबह-शाम, कुछ रात सोने से पहले. मुझे एहसास हुआ कि सही समय पर सही जगह आ गया वर्ना मोहल्ले का एमबीबीएस डॉक्टर तो मुझे मार ही देता.

पर्चे की लगभग सभी दवायें पास के केमिस्ट के यहाँ मिल गयीं. बस एक दवा को छोड़ कर. उस दवा को खोजने के लिये शहर का चप्पा-चप्पा छान मारा. लेकिन सबने ये ही कहा कि दवा उनके पास नहीं है. डॉक्टर का रुतबा और नाम इतना बड़ा था कि किसी ने ये कहने की हिमाक़त नहीं की कि दवा का नाम गलत लिखा है. थक-हार कर मैं वापस उनके पास पहुँचा. तो दवा का नाम देखते ही उनके हाव-भाव बदल गये लेकिन मुँह से निकल ही गया - अरे गलत लिख गया. उसके बाद उन्होंने उस दवा का नाम इतना गोंच दिया कि अपठनीय हो जाये. फिर उन्होंने किसी और दवा का नाम लिख दिया जो बाहर ही केमिस्ट के यहाँ मिल गयी. 

तीन सौ रुपये फ़ीस और हज़ार रुपये की दवा खरीदने के बाद मैने भी ठीक से दवाई खाने के लिये कृतसंकल्प हो गया. अमूमन मैं दवा खाने में कोताही कर जाता हूँ. लेकिन इस बार पूरी ईमानदारी के साथ इलाज करना ज़रूरी था ताकि आगे का जीवन अच्छे से कट सके. उस समय तक उम्र ने चालीसवाँ बसन्त छुआ नहीं था. लग रहा था, अभी न चेते तो आगे परेशानी हो सकती है. तीन-चार महीने के ईलाज में हर पन्द्रह दिन पर चेकअप के लिये जाना पड़ता. हर बार कुछ दवाईयाँ बढ़ती, कुछ घटती. आराम तो था लेकिन बीमारी बनी हुयी थी. डॉक्टर मुस्कुराता तो था नहीं, बस आला लगाता और बीपी नापता. ऐसी-ऐसी शक्ल बनाता कि मुझे लगता पता नहीं कल हो न हो. 

आस्था चैनेल पर बाबा को मै काफी सालों से फॉलो तो कर रहा था, लेकिन योगासन और प्राणायाम बहुत शिद्दत से नहीं करता था. सोचा जब इलाज चल ही रहा है तो बाबा के साथ थोडा योगा भी कर लिया जाये. इस उद्देश्य से मैने टीवी के सामने ही अपनी योगा मैट लगा ली. बाबा जी सवेरे पाँच से सात जो-जो बोलते-करते, मै भी वही करता. योगासन और प्राणायाम को उन्होंने पैकेज बना कर अच्छे से नयी दुनिया के सामने रखा था. हफ़्ते-दस दिन में ही मेरा भरोसा बाबा पर बढ़ गया. डॉक्टर का इलाज भी चलता रहता यदि एक दिन मेरी तबियत ज़्यादा ख़राब न होती. मुझसे उठा नहीं जा रहा था. कुछ समझ भी नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है. सो अपने पुराने डॉक्टर के यहाँ पत्नी जी किसी तरह ले कर पहुँची. हमारे इन डॉक्टर महोदय का चेहरा ही मुस्कुराता हुआ है. आज भी यदि जाना पड़ता तो अक्सर उनको देख कर मैं अपनी बीमारी के लक्षण भूल जाता हूँ. बीपी नापा तो वो बहुत कम था. बड़े डॉक्टर का पर्चा उन्हें दिखाया तो उन्होंने कहा कुछ नहीं लेकिन बीपी की दवा एक टाइम कर दी. डॉक्टर प्रोफेशन में इतनी एकता है कि कोई किसी की गलती नहीं निकालता या बताता. 

अब तक मुझे बाबा जी के साथ टीवी के सामने नियमित योग करते दस-पन्द्रह दिन हो चुके थे और बहुत सामान्य महसूस करने लगा था. दो-एक दिन बड़े डॉक्टर की दवाई स्किप कर के भी देख लिया. अगली डेट पर पुन: बड़े अस्पताल के बड़े डॉक्टर के यहाँ लगी लाइन में लग गया. डेढ़-दो घन्टे बाद नम्बर आया तो डॉक्टर की स्थिति में कोई सुधार नहीं दिखा. बिना मुस्कुराये आला लगाया, बीपी चेक किया और पर्चे पर दवाइयाँ लिखने से पहले गुरु-गम्भीर आवाज़ में बोला - 'अब तेरी दवा रेगुलर चलेगी. तेरे को बीपी की दवा और इन्हेलर दिन में दो टाइम लेना ही पड़ेगा'. तीन-चार महीने हो गये थे उनका इलाज करते. मै इस बार पहले से ही आर-पार के मूड से आया था. मैंने कहा - 'मैं तेरे पास इलाज कराने आया हूँ या ज़िन्दगी भर दवाई खाने. आज से तेरा इलाज बन्द और मै तेरी सारी दवाईयाँ केमिस्ट को लौटा रहा हूँ'. जब मै उसके चेम्बर से निकल रहा था तो पीछे से उसने आवाज़ दे कर कहा - 'तेरा जाड़ा नहीं कटेगा'. जब आत्मा आहत होती है तो लोगों के पास श्राप देने के अलावा कोई उपाय नहीं बचता. मैंने पलट कर उसे देखा. उसका चेहरा लाल था. उसके एलोपैथी के चिकित्सकीय ज्ञान को सम्भवतः किसी ने चुनौती न दी थी अब तक.  

बीस साल होने को आये. बाबा जी के फ्री में उपलब्ध योग, घरेलू नुस्खों और आयुर्वेद के ज्ञान का मै आज भी लाभ ले रहा हूँ. जीवन के अट्ठावन वसन्त पार करके मुझे इस बात का संतोष है कि मैंने जीवन के बड़े हिस्से को दवाईयों  से बचा लिया है. ऐसा नहीं है कि कोई भी शारीरिक समस्या नहीं हुयी या है. अधिकतर तो बाबा जी के प्रवचन में ही मुझे अपनी बीमारी का निदान मिल जाता. लेकिन जब बाबा जी का समाधान काम नहीं आता तो अपने मुस्कुराते डॉक्टर तो हैं ही. भगवान जब तक बड़े डॉक्टरों से बचाये रखें तब तक गनीमत है. यदि सुई से काम चल जाये तलवार क्यों उठानी. 

बाबा को आधुनिक चिकित्सा शास्त्र के पुरोधाओं ने कटघरे में खड़ा कर रखा है. भारत की प्राचीन चिकित्सा पद्यति के प्रसार और एलोपैथी के मिथक को तोड़ने के उद्देश्य से ये आवश्यक हो जाता है कि बाबा अपनी बात अधिक मुखरता और प्रमाणिकता से कहें. कभी-कभी उसकें अतिरेक हो जाना स्वाभाविक है. पिछले पच्चीस-तीस वर्षों में स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग तथा आयुर्वेद और योग आधारित चिकित्सा के प्रति बाबा ने जो जनजागरण अभियान छेड़ रखा है, उसका विरोध तो होना ही था. यदि चिरायता पी कर काम चल जाता हो तो पैरासिटामौल क्यों खानी. चूँकि आधुनिक एलोपैथी चिकित्सा शास्त्र में न तो यम-नियम-संयम के बारे में बताया जाता है, न चरक-सुश्रुत-धनवंतरी का ज्ञान पढ़ाया जाता है, इसलिये इन्होने जिस भाषा में जो पढ़ा है, वही तो करेंगे-बोलेंगे. गलत ये नहीं हैं लेकिन इनकी बिलियन डॉलर इंडस्ट्री पर कोई प्रहार करेगा तो इनकी सभी संस्थायें अंग्रेजी ज्ञान ज़रूर पेलेंगी. न्यायपालिका भी कब स्वतः संज्ञान लेगी कब नहीं ये उसकी विश एंड विम्प्स पर निर्भर है. एलोपैथी के अलावा शायद सभी चिकित्सा प्रणाली नीम-हकीम वाली श्रेणी में रखी गयी है. 

फ़िलहाल बाबा ने कोर्ट ने भ्रामक विज्ञापन के लिये माफ़ी माँग ली है. देखना है, बहुत सी मल्टीनेशनल कम्पनियाँ जो स्वास्थ्य सप्लीमेंट्स और सौंदर्य उत्पाद बेच रही हैं, उनको कब कोर्ट में बुलाया जाता है. योग-प्राणायाम-आयुर्वेद के प्रसार से जितने लोग लाभान्वित हुये हैं, उनकी संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है. आधुनिक चिकित्सा पद्यति को चाहिये कि यदि उन्हें भारत के पुरातन और परम्परागत चिकित्सा विज्ञान को आधुनिक ज्ञान की कसौटी पर जाँचे और परखें, और यदि उचित लगे तो अपनायें भी. कोरोना के दौर में कोई ऐसा डॉक्टर  नहीं बचा होगा जिसने काढ़ा नहीं पिया होगा. एलोपैथी-होम्योपैथी-आयुर्वेदिक उपचारों का संयोजन सम्भवतः मानवता को समुचित, समग्र और सम्पूर्ण स्वास्थ्य और चिकित्सा प्रदान करने में सक्षम हो. विभिन्न चिकित्सा पद्यतियों द्वारा बीमारियों का प्रबन्धन निश्चित रूप से उनके निवारण से ज्यादा सस्ता और कारगर उपाय सिद्ध हो सकता है.  

इन्शा अल्ला अगर भगवान ने चाहा तो वाणभट्ट, जो भी है, जितना भी है, जीवन ऑर्गेनिक तरीके से गुजारना चाहेगा. बाबा जी के साथ तो पूरा देश खड़ा है.

-वाणभट्ट

रविवार, 3 मार्च 2024

संस्कार

संस्कार शब्द जब भी कान में पड़ता है तो हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान का ही ख़्याल आता है. भारत में विशेष रूप से हिन्दुओं के संदर्भ में संस्कार का बहुत महत्व है. गर्भाधान से लेकर अंत्येष्टि तक संस्कार हिन्दुओं के साथ-साथ चलते हैं. अमूमन लोग इसका अर्थ तमीज़, तहज़ीब या मैनर्स समझ लेते हैं. लेकिन ये इन सबसे अलग है. संस्कार वो हैं जो बचपन से घुट्टी की तरह पिलाया जाता है. खास बात तो ये है कि संस्कार कोई किसी को सिखाता नहीं है. बल्कि इनको बच्चे अपने घर में अपने बड़ों के आचरण से सीखते हैं. समय और जगह के साथ-साथ संस्कार भी बदल जाते हैं. हालात तो ये हैं कि हर घर के अपने संस्कार होते हैं.

यहाँ पर सबसे बड़ा संस्कार बड़ों का आदर करना है. बड़े भी बस यही ताक लगाये देखते रहते हैं कि बच्चों में संस्कार नाम की चीज़ है भी या नहीं. लेकिन अक्सर ये बात दूसरों के बच्चों पर लागू होती है. हर व्यक्ति ये मान कर चलता है कि उसने अपने बच्चों को अच्छे संस्कार दिये हैं. लेकिन तौलने का तराजू तो दूसरों के हाथ में होता है. 

ग्रेजुऐशन में जब पहली बार जीन्स खरीदी तो लगा रोज-रोज धुलाई से आज़ादी मिल गयी. एक जीन्स को हफ़्ते भर न रगड़ लो तो संतोष नहीं होता. उस पर गोल या बोट नेक वाली टी-शर्ट जब पहनता था तो लगता था कि कहीं न कहीं बात बन जायेगी. ये तो बहुत बाद में पता चला कि लड़कियाँ सिक्योर्ड फ्यूचर देखती हैं. एक से एक कैंटीन में चाय पिलवाने वाले स्मार्ट लड़के टापते रह गये. लड़कियाँ टॉपर्स के साथ नोट्स एक्सचेंज करते-करते सेट हो गयीं. वो तो भला हो कि नौकरी मिल गयी नहीं तो शादी के भी लाले पड़ जाते. 

ऐसे ही जीन्स और बोट नेक वाली टी-शर्ट पहने जब मैं कॉलेज से लौटा तो घर में फूफा जी ड्राइंगरूम में सोफ़े पर बैठे हुये थे. चरण-स्पर्श करने के इरादे से झुका तो उन्होंने घम्म से एक घूँसा पीठ पर मारा. पिता जी से बोले ये क्या संस्कार दे रखा है, बेटा भिखारियों जैसे कपड़े पहने घूम रहा है. अब उन्हें कौन समझाये की जीन्स को फेड कराने के लिये कितने जतन किये गये हैं. ऐसे ही जब पोस्ट ग्रेजुऐशन में थीसिस के दौरान हर बच्चा दाढ़ी बढ़ाये घूम रहा था, जीजा जी का पत्र आया कि कभी लखनऊ घूम जाओ. जब दाढ़ी बढ़ ही गयी थी तो सोचा कबीर बेदी की तरह सेट करवा लिया जाये. मौका निकाल के जब जीजा जी के पास पहुँचा तो उनका पहला रिऐक्शन यही था कि ये क्या लफंगों जैसी शक्ल बना रखी है. क्लीन शेव्ड (मूँछ मुंडे) जीजा ने मेरी दाढ़ी कटवा के ही दम लिया. संस्कार के नाम पर हम फूफा और जीजा जैसे मान्य लोगों की बात भला कैसे टाल सकते थे. तब फोन या मोबाइल तो थे नहीं कि बहन बता दे कि घर पर फूफा या जीजा आये हैं. इस डर से जीन्स-टीशर्ट-दाढ़ी सिर्फ़ हॉस्टल तक ही सीमित रही. घर जाता तो ओरिजिनल गोलमाल फ़िल्म के राम प्रसाद की तरह बालों में तेल चुपड़ कर ही घुसता.

कॉलेज के अपने संस्कार हुआ करते थे, जो रैगिंग के दौरान सीनियर्स ठोंक-पीट के सिखा देते. हॉस्टल पहुँचते ही बाल रंगरूटों की तरह कटवा दिये जाते. पैंट-शर्ट-बेल्ट-टाई ये फ्रेशर्स की ड्रेस हुआ करती थी. उस पर भी शर्त ये थी कि शर्ट लाइट कलर की और पैंट डार्क. सीनियर्स से बात करनी है तो अपनी शर्ट की तीसरी बटन देख कर. सीनियर्स के असाइनमेंट्स चाहे वर्कशॉप के हों या इंजीनियरिंग ड्राइंग के, बिना हुज्जत के निपटाना जूनियर्स का ही काम होता. सीनियर्स के सामने हँसना तो दूर मुस्कुराना भी गुनाह था. ये बात नौकरी के बाद समझ आयी कि यदि आप ज़्यादा खुश दिखोगे तो बॉस आपका काम लगा देगा. इसलिये मनहूस चेहरा बनाये रखिये ताकि उसे ग़लतफ़हमी रहे कि उसका इस्तक़बाल बुलन्द है. 

जमाना क्या बदला रैगिंग बैन हो गयी. नतीजा ये निकला कि जूनियर्स सीनियर्स को टी-ली-ली करके चिढ़ाया करते और सीनियर्स मन-मसोस के देखते रहते. सीनियर्स और जूनियर्स का सम्बन्ध भी समय के साथ कम होता गया. पहले जूनियर्स तीन साल सीनियर्स और सीनियर्स तीन साल जूनियर्स को जानते थे. अब एक बैच के बच्चे भी एक-दूसरे को पहचान लें तो बड़ी बात है. ये पौध जब डिग्री-विग्री ले कर बाहर आयी तो सीनियर-जूनियर का कॉन्सेप्ट खत्म हो चला था. आज जब ये नौकरी में आ गये तो रैगिंग जनित संस्कार की विहीनता हर तरफ़ परिलक्षित होती है. सीनियर अपनी इज़्ज़त अपने हाथ मान कर जूनियर्स से उचित दूरी बनाये रखते हैं. इसमें इनका दोष भी नहीं है. चूँकि इन्होंने बड़ों का बड़प्पन तो देखा नहीं है इसलिये उसको एप्रीशिएट करना इनके बस की बात नहीं है. सीनियर अगर कैंटीन में बैठा है तो जूनियर को पर्स नहीं निकालना. सारी किताबें और नोट्स पिछले बैच से अगले बैच तक ट्रांसफर होते रहते. सीनियर्स भी लोकल गार्जियन की तरह ख़्याल रखते. 

वो जब मेरे कमरे में आया तो मेज के दूसरी तरफ़ बिन्दास अन्दाज़ में विज़िटर चेयर खींच कर बैठ गया. ठीक भी है, कुर्सी बैठने के लिये ही तो होती है. उसे नौकरी जॉइन किये दो-एक साल हो चुके थे. लेकिन उसका मुझसे कोई काम नहीं पड़ा तो मेरे कमरे में उसका आना नहीं हुआ. लड़का बिन्दास था. उसके लहजे में ग़ज़ब का कॉन्फिडेंस था. अच्छा लगता है आत्मविश्वास से लबरेज़ युवाओं से मिल कर. मेरा अपना मानना है कि हर आने वाली पीढ़ी अपनी पिछली पीढ़ी से ज़्यादा श्रेष्ठ होती है. ये कोई जबरदस्ती का जेनेटिक इम्प्रूवमेन्ट नहीं नेचुरल इवोल्यूशन है. हमारे समय में बच्चे को मालिश करके काला टीका लगा कर पालने पर झूला दो, तो बड़े आराम से झूलता रहता था. आज का बच्चा मोबाइल और कार्टून नेटवर्क से नीचे मानने को तैयार नहीं है. बात ख़त्म होने के बाद वो जिस अन्दाज़ में कुर्सी खींच के बैठा था, उसी अन्दाज़ में कुर्सी धकेल के उठ खड़ा हुआ. कुर्सी पैंतालीस डिग्री का आर्क बनाते हुये स्थिर हो गयी. बन्दा पलट के धड़धड़ाता हुआ निकल गया. बेतरतीब चीज़ें अखरती हैं, इसलिये उसके जाते ही मैने उस कुर्सी को यथावत अगले आगन्तुक के लिये ठीक से रख दिया. 

आजकल किसी को समझने-समझाने का ज़माना तो रहा नहीं. वैसे भी जब से घर में पेरेन्ट्स और स्कूल में टीचर्स ने कुटाई करना बन्द कर दिया है, तो नये बच्चों (जिसमें अपने बच्चे भी शामिल हैं) से संस्कार की उम्मीद रखना सही नहीं लगता है. मुझे लगता है कि जब समाज का कोई दबाव नहीं होता तो बच्चे खुल के जीते हैं. हम लोगों की तो उम्र ही इसी में निकल गयी कि लोग क्या कहेंगे और कहीं कोई इष्ट-मित्र बुरा न मान जाये. ये पीढ़ी इन मान्यताओं से मुक्त है. जीजा और फूफा का मज़ाक इन दिनों इतना बन गया है कि दोनों अपने चाह कर भी पुराने मोड में नहीं जा पा रहे हैं. अच्छा लगता है ये देख कर कि इन बच्चों में अपनी ज़िन्दगी जीने की ललक है. समय बदलता है तो उसे स्वीकार भी करना पड़ता है. 

कुछ दिन बाद किसी काम से हेड साहब के कमरे में जाना हुआ. जब मैं पहुँचा तो वो ही बन्दा हेड के सामने बैठा हुआ था. मैं भी एक कुर्सी पर विराजमान हो गया. मेरे आते ही बन्दे ने हेड से रुख़सत माँगी और उठ खड़ा हुआ. उसके अन्दाज़ से आज बिन्दासपन गायब था. बहुत ही सलीके से खड़ा हुआ. कुर्सी को धीरे से धकेला और उठ कर वापस कुर्सी को करीने से लगा दी. अब हम लोगों की आँखें मिलीं. मुस्कुराया मैं भी और मुस्कराया वो भी. मुझे अच्छा लगा कि कम से कम पहचान तो गया. आजकल काम न हो तो कौन किसको पहचानता है. आहिस्ते से वो कमरे के बाहर निकल गया. तब मुझे लगा कि बात संस्कार की नहीं, सीआर (कॉन्फिडेंशियल रिपोर्ट) की है.

-वाणभट्ट

रविवार, 25 फ़रवरी 2024

भला जो देखन मै चला

कबीर दास ने बुरा देखने का प्रयास किया था और उसका अन्त ख़ुद उन्हीं पर हुआ. वो अन्तर्ज्ञान का युग था. आज का युग बहिर्ज्ञान का है. हर कोई दीदे फाड़े बाहर की ओर देख रहा है. बाहर इतनी हैप्पनिंग्स हो रही हैं कि आदमी को अन्दर जाने का समय तभी मिलता है जब मुँह में दाँत और पेट में आँत काम करना बन्द कर दें. वो कुछ भी मिस नहीं करना चाहता. पाँच अख़बार और पचहत्तर न्यूज़ चैनल्स के बाद भी लोग-बाग़ (तथाकथित पत्रकार) अपना-अपना यूट्यूब चैनल बना के लाइक और सब्सक्राइब करने की डिमांड करते घूम रहे हैं. ये वो लोग हैं जिन्हें लगता है कि इन्होंने नहीं बताया तो दुनिया पीछे छूट जायेगी. जब चैनल के चैनल प्रो और अगेंस्ट सरकार हो गये हों तो भला अपना एजेंडा चलाने वाले पत्रकार कहाँ बच पायेंगे. ख़ासियत ये हैं कि अन्दर की ख़बर रखने वालों को किसी भी स्थापित भारतीय मीडिया पर भरोसा नहीं है. वो या तो बीबीसी देखते हैं या अल-जज़ीरा. जिनको अपनी अंग्रेज़ी पर शुबहा हो उन्हें इन्हीं देसी पत्रकारों पर ही निर्भर रहना पड़ता है. और ये लोग अपनी-अपनी पसन्द के अनुसार पक्ष और विपक्ष की धज्जियाँ उड़ाया करते हैं. 

जिस उम्मीद में मैने ब्लॉग लिखना शुरू किया था कि कुछ एक्स्ट्रा इनकम हो जायेगी, उसी उम्मीद से ये भी अपने यूट्यूब चैनल पर लाइक या सब्सक्राइब करने का निवेदन करते रहते हैं. सुना है हज़ार फॉलोवर्स होने पर यूट्यूब कुछ पैसा देता है. मै भी सोच रहा हूँ कि इतनी मेहनत करके ब्लॉग लिखने से अच्छा है कि कुछ मिनट के लिये किसी भी महान हस्ती को गरियाना शुरू कर दिया जाये. डेढ़ सौ करोड़ के देश में हज़ार सब्सक्राइबर्स खोज पाना कौन सा कठिन काम है. अलग-अलग वाट्सएप्प ग्रूप्स पर जिन्हें रोज गुड मॉर्निंग, नये-नये वीडियोज़ और जोक्स भेजता रहता हूँ, वो ही अगर सब्सक्राइब कर लें, तो डेढ़-दो हज़ार लोग तो हो ही जायेंगे. लेकिन मार्केट में सब के सब किसी न किसी की बुरायी खोज के गरियाने में लगे हैं, तो मैंने सोचा कि मैं कुछ अलग करूँगा. लोग बुराई करने में लगे हैं तो मैं तारीफ़ करने में लग जाता हूँ. किसी वाट्सएपिया गुरू ने बताया था कि अच्छाई और भलाई के रास्ते पर भीड़ कम है. अगर मैं आम लोगों की भलाई का ज़िक्र करूँ तो शायद लोगों को अच्छा लगे और सब्सक्राइबर्स आसानी से मिल जायें.

वाणभट्ट कोई रवीश और अर्नब और सुधीर और अंजना की तरह ख्यातिलब्ध पत्रकार तो है नहीं जो किसी बड़े नेता-अभिनेता का इंटरव्यू ले सके. सो मेरे पास बचे पड़ोसी शर्मा जी. जिनसे मेरे सम्बन्ध वैसे ही थे जैसे दो पड़ोसियों के होते हैं या होने चाहिये. मैने मकान बनवाया तो उन्होंने भी बनवा लिया, मैने दूसरा तल्ला बनवाया तो उन्होंने भी बनवा लिया, मैने कार खरीदी तो उन्होंने भी. गोया दुनिया में उनका सारा कम्पटीशन मुझसे ही था. लेखक और सम्वेदनशील (डरपोक और दब्बू) होने का और कोई फ़ायदा हो न हो, हर कोई आपको अपने फ़ायदे के लिये यूज़ करना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझता है. वैसे तो उन्हें मुझसे कोई खास मतलब तो था नहीं क्योंकि मैं खाता-पीता नहीं. जब पार्टी देनी हो तो दूर-दराज़ से लोगों को खोज लाते और मुझसे कहते यार तुझे क्या बुलाना, तू तो न पीता है, न पिलाता. लेकिन जब काम पड़ता तो मेरी ही घण्टी बजाते. चाहे घर की हो या फोन की. इसलिये मुझे इतना भरोसा तो था कि वो मेरे इस नेक काम के लिये मना नहीं करेंगे. सो पॉडकास्ट के लिये कैमरा, कैमरा स्टैंड और माइक लेकर उनके घर पहुँच गया. 

गेट के बाहर से घण्टी बजायी तो घर के अन्दर से कोई आवाज़ नहीं आयी. झाँक के देखा तो कार और स्कूटर दोनों खड़ी थीं. मतलब शर्मा घर के अन्दर ही था. जब से साइबर क्राइम शुरू हुआ है चोर-डकैत भी अब घर में घुसने की कोशिश नहीं करते. लोग अपने घर में बैठे-बैठे पास-पड़ोस की हरकत देखने के उद्देश्य से धड़ाधड़ सीसीटीवी लगवा रहे हैं. ताकि पता चल सके कि हमारी काम वाली पडोसी के घर काम तो नहीं कर गयी. मेरी छठीं इन्द्री कह रही थी कि कैमरे के उधर शर्मा अपने 75 इंच के टीवी पर मुझे गेट भड़भड़ाते हुये देख रहा है. मैं भी सोच के आया था कि आज अपना पहला वीडियो तो बना के ही लौटूँगा. काफी देर भड़भड़ाने के बाद उसे जब अन्दाज़ लग गया कि मैं नहीं जाने वाला, तो दरवाजा खोल के बाहर निकला. 'आइये-आइये वर्मा जी. जरा नींद लग गयी थी'. जब कि उसका चेहरा पूरी तरह चैतन्य दिख रहा था. सोचा पूछूँ पूरा घर सो रहा था क्या. लेकिन काम अपना था, इसलिये नाराज़ करना ठीक नहीं लगा. मेरे मन में पहला विचार यही आया कि किसी ढंग के आदमी से हमें शुरुआत करनी चाहिये थी. इस झूठे-मक्कार आदमी से भलाई की भला क्या उम्मीद की जाये. लेकिन मैंने तुरन्त मन में आये निगेटिव विचार का बहिष्कार कर दिया. सेल्फ़ टॉक में बोला - वर्मा, बी पॉज़िटिव. 

कैमरा-माइक देख के शर्मा थोड़ा कॉन्शस हो गया. बोला - भाई क्या इरादा है. मैने पूरे डीटेल में उसे बताया कि कैसे यूट्यूब पर अपना चैनल बना कर और सब्सक्राइबर्स बढ़ा कर एक्स्ट्रा कमायी की जा सकती है. शुरुआत उनके इंटरव्यू से करना चाहता हूँ. सुनते ही उनके चेहरे पर ऐसा भाव आया मानो कहना चाह रहे हों कि मेरे इंटरव्यू से जो कमायेगा उसका आधा मुझे दे. मुझे उसका काइयाँपन पहले से मालूम था. लेकिन आज सुबह ही किसी बाबा ने किसी चैनल पर बताया था कि अच्छाई और बुरायी देखने वाले की आँख में होती है. यदि आप को बुरायी दिखायी देती है तो आप में भी वो तत्व विद्यमान है. मुझे अपने अन्दर आये इस कुत्सित विचार पर आत्मग्लानि महसूस हुयी. भगवान सब देखता है. यहाँ तक कि हमारे विचार भी. बहरहाल सेंटर टेबल पर माइक और स्टैंड पर कैमरा सेट करके हमने इंटरव्यू शुरू कर दिया. पहले तो कैमरे के सामने वो कुछ हेज़ीटेन्ट लगे फिर धीरे-धीरे खुलते गये.

उनकी परतें खुलने लगीं. मेरा जन्म गाँव के एक गरीब किसान के यहाँ हुआ. अनपढ़ माँ ने मुझे पढ़ायी की अहमियत समझायी. पिता जी तो बस खेती में मदद की ही आस करते थे. प्राइमरी के मास्टर जी ने मेधा को पहचाना और छात्रवृत्ति के एग्जाम के लिये तैयारी करवायी ताकि शहर के सरकारी स्कूल में दाख़िला मिल सके. अपने गाँव से शहर आने वाला मै पहला व्यक्ति था. शहर के गवर्नमेन्ट इंटर कॉलेज के होस्टल में जब रहने आये तो मेरी ही तरह उस जिले के अन्य गाँवों से और भी बच्चे आये थे. सभी मेहनती बच्चे आपस में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा रखते थे. क्लास में शहर के बच्चे भी थे. जिनको देख के इंफेरियॉरिटी कॉम्प्लेक्स हुआ करता था. हमारी अँग्रेज़ी की शिक्षा कक्षा छः से आरम्भ हुयी, जब कि शहर के बच्चे नर्सरी से अँग्रेज़ी पढ़ रहे थे. चूँकि होस्टल के सब छात्रों को छात्रवृत्ति से ही गुजारा करना होता था, इसलिये शहरी बच्चे जिस स्वच्छंदता से जिया करते थे, वो हमें स्वप्न सा लगता था. पढ़ायी के अलावा और कोई काम था नहीं. कुछ शहर वाले दोस्त भी बने. लेकिन उनकी मौज-मस्ती-ख़र्चे अलग थे. इसलिये दोस्ती बस क्लास और पढायी तक रही. चूँकि हमारा टारगेट सिर्फ़ पढायी था, इसलिये पहले ही अटेम्प्ट में रीजनल इंजीनियरिंग कॉलेज में एडमिशन मिल गया. चार साल इंजीनियरिंग की पढ़ायी के साथ पूरा फ़ोकस अँग्रेज़ी सुधारने में लगा दिया. यहाँ भी पढ़ायी छात्रवृत्ति पर ही निर्भर थी. इसलिये तमन्नाओं पर अंकुश लगाना जरूरी था. क्लास के एक लड़के की पर्सनाल्टी मुझे अच्छी लगती थी, उसी को कॉपी करने का प्रयास शुरू कर दिया. उसकी चाल-ढाल, कपड़े पहनने का सलीका, बोलने-बतियाने का तरीका. पहली ब्रान्डेड जींस नौकरी लगने के बाद खरीदी. बाद में भाई-बहन को पढ़ाने की जिम्मेदारी मैंने अपने ऊपर ले ली. सभी ठीक-ठाक नौकरी में हैं. आज तीस साल शहर में रहते हो गये लेकिन मेरे अन्दर का गाँव अभी भी जीवित है, जो मुझे शहरी होने से रोकता है. शहर की चिकनी-चुपड़ी पॉलिश्ड बातें करने की कोशिश तो करता हूँ लेकिन उसमें कहीं न कहीं नकलीपन सा लगता है. अपने कॉम्प्लेक्सेज़ के साथ जीना कठिन है, लेकिन मुझे रोज जीना पड़ता है. प्रत्यक्ष रूप से जो शहरों में व्याप्त हेकड़ी है, उसे बनाये रखने की कोशिश करता रहता हूँ. ताकि कोई मुझे बहुत शरीफ़ समझ कर फ़ायदा उठाने का प्रयास न करे. अब तो दूसरों पर डॉमिनेट करने की प्रवृत्ति गाँव तक पहुँच गयी है. मै आज भी अपने आस-पास के लोगों से प्रभावित हो जाता हूँ और उनसे कुछ न कुछ सीखने का प्रयास करता रहता हूँ. गाँव के मास्टर जी से लेकर अब तक जो भी लोग मेरी ज़िन्दगी में आये, वो मेरे व्यक्तित्व का अंग बन गये.   

मै और मेरा कैमरा उनको खुलते हुये सुनते-देखते रहे. मुझे लगा कि भक्ति चैनल पर किसी स्वामी महाराज का प्रवचन सुन रहा हूँ. मेरे ज्ञान चक्षु खुल रहे थे. किसी के बारे में हम लोग बड़ी जल्दी अपनी ओपिनियन बना लेते हैं. लेकिन यदि किसी को सही से जानना हो तो उसके किरदार में घुसना ज़रुरी है. हर शख़्स की अपनी कहानी है, सबके अपने-अपने सच हैं. लेकिन हैं सब के सब भले. कबीर जी से माफ़ी के साथ मै कहना चाहता हूँ कि भलाई देखने की कोशिश हो तो हर कोई भला ही दिखता है. जब सब भले हों तो मैं भी बुरा कैसे हो सकता हूँ. वैसे भी हमारे बुजुर्गों ने कहा है कि आप भले तो जग भला. अब चूँकि पहली बार मैने भलाई के मुद्दे की बात उठाई है तो ये कहने में गुरेज कैसा कि - मो सम भला न कोय. 

एक आदमी के बनने या न-बनने में भी बहुत लोगों का योगदान होता है. जिनसे हम अच्छी या बुरी चीज़ें सीखते हैं. वही हमारी वर्तमान पर्सनाल्टी का हिस्सा बन जातीं हैं. बरबस निदा फ़ाज़ली साहब की ये पंक्तियाँ याद आ गयीं-

हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी 

जिसको देखना हो कई बार देखना

अपना वीडियो कम्प्लीट कर के यूट्यूब पर अपलोड कर दिया है. दिल खोल के लाइक और सब्सक्राइब कीजिये. अगला पॉडकास्ट मै मोहल्ले के माफ़िया पर बनाने की सोच रहा हूँ. उसकी भी कोई दिल को छू जाने वाली अन्तर्कथा ज़रूर होगी. अपने पॉडकास्ट पर मै हर टॉम-डिक-हैरी (ऐरे-गैरे) को अपनी भावनायें व्यक्त करने का मौका दूँगा. आज ही सुबह मुझे सपना आया है कि यूट्यूब वाले चेक लिये मेरे घर का पता पूछते घूम रहे हैं. 

-वाणभट्ट

घोषणापत्र

हर तरफ़ चुनाव का माहौल है. छोटी-छोटी मोहल्ला स्तर की पार्टियां आज अपना-अपना घोषणापत्र ऐसे बांच रहे हैं मानो केन्द्र में सरकार इनकी ही बनने व...