शनिवार, 28 दिसंबर 2013

बिदाई

बिदाई

हमारे देश में बिदाई अपने आप में एक अत्यंत भावुक प्रसंग है। विवाह के उपरान्त वधु की बिदाई बहुत ही मार्मिक हो जाती है अगर कोई बिस्मिल्ला खां साहब की शहनाई बजा दे। रफ़ी साहब का बाबुल की दुआएं लेती जा… अगर बज गया तो तय है कि स्वयं वर, वधु से ज्यादा भावुक हो जाये। कई बार तो वधु को अपना रुमाल देने के बजाय वो खुद उसके आँचल से अपने आंसू पोंछने लग जाता है। अपने विवाह के समय मैंने जब दो शर्तें रख दीं कि बारात का स्वागत भले शहनाई से कर लीजिये पर विदाई कतई नहीं। और ये रफ़ी साहब वाला गाना कहीं से भी कान में नहीं पड़ना चाहिये। धर्मपत्नी के घर वाले चौंक गये। कैसा बंदा है दहेज़ के युग में उट-पटांग सी डिमांड कर रहा है। मेरी मज़बूरी थी कि मै पहले ही दिन अपनी भावुकता का प्रदर्शन करने से बचना चाहता था। पर बिदाई के वक्त इंसेंसटिविटी की इन्तहा हो गयी। अगर टीवी-फ्रिज की डिमांड होती तो लोग याद रखते, मेरी छोटी से ख्वाहिश को सब भूल गये। शहनाई वाले ने बिदाई को यादगार बनाने के लिये बाबुल की दुआएं…धुन छेड़ दी। फिर मेरा क्या जुलुस निकला होगा इसका अन्दाज़ आप सब लगा सकते हैं। बीवी और सास मुझे चुप कराने में लगीं थीं और ससुर बेचारे कन्धा छुड़ाते भाग रहे थे।  

पर यहाँ बिदाई का जिक्र नौकरी से रिटायरमेंट के सन्दर्भ में है। बिदाई विवाह के अवसर पर हो या रिटायरमेंट के, दुखद न भी कहें, तो कुछ अजीब सा अनुभव तो है ही। वहाँ बाप खुश है कि बेटी से फुर्सत मिली अब वो गंगा नहायेगा। यहाँ साथी खुश हैं कि एक निपटा। लेकिन मज़ा ये है दोनों असीम दुःख प्रदर्शित करना चाहते हैं। आम आदमी का रिटायरमेंट भी आम होता है और बिदाई भी। भले सब लोग चंदा दे दें पर विदाई समारोह तक जाने का समय निकाल पाएं ये ज़रूरी नहीं। पर ख़ास आदमी, जो अमूमन बॉस हुआ करता है, के रिटायरमेंट और बिदाई को ख़ास बनाने के लिए उसके चेले कोई कोर-कसर  नहीं छोड़ते। हॉल खचाखच भर जाता है सिर्फ ये देखने के लिए कि चेले जो अब तक बॉस के साथ मौज की रोटियाँ तोड़ रहे थे, कैसे विलाप करते हैं। बॉस जिसके शरीर में पद के कारण जो कलफ़ सी अकड़न आ गयी थी, वो कैसे जाती है।

जिस बॉस ने खौफ़ कायम करके काम लिया हो वो ये भी जानता है कि लोग डर से नतमस्तक थे और मौका पड़ते ही बगावत कर सकते हैं। ये बगावत कोई क्रांतिकारी बगावत नहीं होती। बस लोग निर्णय ले लेते हैं कि गुंडई करने वाले बॉस को फेयरवेल नहीं देनी। रिटायरमेंट तो होना ही है पर फेयरवेल मिलेगी कि नहीं ये निर्णय जनता लेती है। एक तरह से ये आपकी इंटिग्रिटी रिपोर्ट होती है। बॉस बनने के बाद आप पद में निहित अपनी शक्तियों का दुरूपयोग करते हुये सबकी सत्यनिष्ठा परिभाषित करते हो। हमारे देश ने बॉसों को सत्यनिष्ठा से इम्युनिटी दे रक्खी है। चाहे कितना भी भ्रष्ट अफसर हो उसकी सत्यनिष्ठा नीचे वाले लोग तो भर नहीं सकते।इसलिये फेयरवेल ही मानक है कि आप कितने लोकप्रिय हैं। चूँकि हमारा बॉस मैनेजर से ज्यादा प्रशासक बनने  में लगा रहता है इसलिए वो ये भी सुनिश्चित करना चाहता है कि ऐसी बगावत न हो और अगर होने वाली हो तो पहले से पता चल जाए। इस विषम परिस्थिति से निपटने के लिये वो भी आखिरी दिन तक सी आर का खौफ लटका के रखता है। या ये बता के रखता है कि किसी भी पल अगले छः महीनों के लिए एक्सटेंशन लैटर आता ही होगा। डरे सहमे लोग जिन्होंने आपको कई साल झेला है कुछ और दिन झेलने को विवश हो जाते हैं। बिदाई मिलने के बाद आप धीरे से पतली गली से निकल लेते हो। 

मेरी बिदाई का समय नज़दीक आ रहा था। राज योग की शुरुआत मानो कल की ही बात हो। चार साल कैसे निकल गये पता ही नहीं चला। राज्याभिषेक एक स्वप्न की तरह लगता है। विभाग के उच्चतम पद पर मेरी नियुक्ति एक संयोग से कम नहीं थी। तब मैंने ईश्वर का शुक्रिया भी अता किया था। उस समय मै वाकई सेवा करना चाहता था। पर सिस्टम में पहले से जुटे लग्गू-भग्गू को अपनी मलाई की चिंता हो जाती है। बॉस अगर सबके साथ रहेगा तो आम और ख़ास लोगों में फर्क नहीं रह जायेगा। उन्होंने बताया कि जिनसे काम लेना है उनसे दूरी  बना के रखना ज़रूरी है। उन्होंने मुझे मेरी और मेरे पद में अवस्थित शक्तियों का भान कराया। ये चेंज  कैसे हुआ मुझे खुद पता नहीं चला। मुझमें इन लोगों ने इतनी इनसेक्यूरिटी भर दी कि मैंने लोगों पर विश्वास करना बंद कर दिया। लगता था सब नकारे और निकम्मे हैं और मुझे इनसे काम कराने के लिए भेजा गया है। सख्ती करो तो लगता लोग मुझे और मेरे पद को उचित आदर नहीं दे रहे हैं। जो एक प्रशासक का जन्मसिद्ध अधिकार है। पर एक बार इनसेक्युरिटी की फीलिंग अगर किसी में आ गयी, तो उसके आचार-विचार में कैसे परिवर्तन आ जाता है ये मै अब महसूस कर सकता हूँ। 

अपने को सिक्योर करने के लिए लग्गू ने सुझाया कि सबोर्डिनेट्स में असुरक्षा की भावना जब तक नहीं होगी तब तक आप असुरक्षित ही रहेंगे। तो मीटिंग्स में जो भी बोलने का प्रयास करे उसी पर दाना-पानी ले कर चढ़ जाओ। जब बोलने वाले चुप हो जायेंगे तो न बोलने वाले अपने आप तुम्हारे साथ हो जायेंगे। भग्गू ने बताया कि जो लिखने वाले हैं उन्हें उल्टा मेमो थमा दो। आफ्टर ऑल यू हैव टेन पेंस। लिखने वाले शरणागत हो जायेंगे। जो थोड़ी बहुत चूँ -चाँ करे उसे कमरे में बुला के हड़का दो। लग्गू ने समझाया सिर्फ और सिर्फ हम आपके प्रति वफादार हैं।  भग्गू ने बताया आप सिर्फ हमारा ख्याल रखिये और सारी व्यवस्था हमारे ऊपर छोड़ दीजिये। पूरे चार साल लग्गू-भग्गू ने मुझे कन्फ्यूज़ करके रख दिया। मै सिर्फ ये ही इंश्योर करता रहा कि कौन मेरे साथ हैं और कौन नहीं। चूँकि इस सिस्टम में टारगेट और जवाबदेही सिर्फ नीचे वालों की होती है इसलिए मुझे ज्यादा दिक्कत नहीं हुयी। पर अब रिटायरमेंट आ ही गया समझो, तो एक चिंता सता रही है कि फेयरवेल मिलेगा या नहीं। इतने दिन मैंने जबरन आदर तो बटोर लिया। पर अब यदि फेयरवेल न हुआ तो ये बात जग जाहिर हो जायेगी कि चार सालों में मेरी जनमानस में कोई पैठ न बन पायी। आजकल ये डर भी लगता है कि जिन्हें सार्वजानिक और व्यक्तिगत रूप से इन वर्षों में अपमानित करता रहा कहीं वो अपने उदगार न व्यक्त कर दें। आजकल तो लग्गू-भग्गू पर भी शक़ होता है। कमरे में कम आ रहे हैं। पर उन्हें ही बुलाना पड़ेगा और कोई तो शायद मेरे बुलाने पर भी न आये।  

लग्गू-भग्गू से अपनी चिंता जब साझा की तो उन्होंने इसका समाधान भी निकाल दिया। लग्गू ने कहा कल से ही हम आपके फेयरवेल के लिए पैसा इकठ्ठा करना शुरू कर देंगे। जो-जो बागी है उनकी लिस्ट दो दिन में आपके हाथ होगी। उनकी सी आर और इंटीग्रिटी के साथ कैसा सुलूक करना है ये निर्णय आपका। भग्गू ने कहा पहले अलग-अलग ग्रुप्स से आपकी बिदाई करवा देतें हैं। शुरुआत मेरे यहाँ से। देखिये कैसी होड़ लगती है आपको बिदाई देने की। मैंने कहा धन्यवाद, यू पीपुल आर रियली जीनियस। दोनों ने एक सुर में जवाब दिया वी आर विथ दी चेयर, सर। 

अब मै निश्चिन्त हूँ एक भाव-भीनी बिदाई पाने के लिए। 

- वाणभट्ट 

पुनश्च : हरिवंश राय 'बच्चन' जी की कालजयी रचना मधुशाला की पंक्तियाँ समर्पित कर रहा हूँ -
      
     छोटे से जीवन में कितना प्यार करूँ, पी लूँ हाला,
     आने के ही साथ जगत में कहलाया 'जाने वाला',
     स्वागत के ही साथ विदा की होती देखी तैयारी,
     बंद लगी होने खुलते ही मेरी जीवन मधुशाला।

अपने विदा की तैयारी स्वागत के साथ ही शुरू कर देनी चाहिए।

शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013

राज योग

राज योग

ज्योतिषी महोदय कुंडली में घुसे पड़े थे। पोस्ट ग्रेडुएशन के बाद नौकरी के आसार दूर-दूर तक दिखाई नहीं पड़ रहे थे। एक मित्र ने सलाह दी कि पोथी-पत्री भी बिचरवा लो। गृह-नक्षत्रों की चाल ज्ञानी पंडितों से छिपी नहीं रहती। जब आदमी कमज़ोर पड़ता है तो यही सब टोटके उसके लिए जीने का सम्बल हो जाते हैं। सब कुछ सही-सलामत चलता रहे तो कौन पूछता है इन ज्ञानी-ध्यानियों को। 



युवा ज्योतिषी के चेहरे पर एक अद्भुत तेज़ था, या बेरोज़गारी से मेरा तेज़ फीका पड़ गया था, कहना मुश्किल है। कुछ मिनटों की सघन गणना करने के बाद जब उसने कुंडली से ऊपर सर उठाया तो मुझे और मेरे मित्र दोनों को उसने अपनी भविष्यवाणी सुनने हेतु लालायित पाया। गुरु-गम्भीर आवाज़ में उसने फ़रमाया जातक की कुंडली में राज योग है। ये बहुत आगे जायेगा और राज सुख का भागी बनेगा। मैंने मन ही मन कहा बेटा ज़माने के साथ तू भी उड़ा ले मज़ाक मेरी मुफलिसी का। पर मेरा दोस्त खुश हो गया और उसके हाथ पर दस रूपया रख दिया। बाद में मैंने कहा यार ये दस रुपये तेरे उधार रहे। दोस्त बोला जब डी-एम, वी-एम बन जाओगे तो सब सूद-ब्याज़ सहित वसूल लूंगा। उसी के कहने पर जी एस की किताबें भी खरीद लीं आईएएस / पीसीएस के फॉर्म भर दिये। तथाकथित तौर पर भरसक तैयारी में जुट गया। विशिष्ट क्षेत्र में अध्ययन के बाद विकल्प सीमित हो जाते हैं। दूसरे विषयों के साथ प्रतियोगिताएं निकालना किसी चुनौती से कम नहीं है।



बहरहाल खुशकिस्मत रहा कि जिस विश्वविद्यालय से पढाई की थी वहीँ अध्यापन हेतु कुछ रिक्तियां आ गयीं। गुरु जी लोग मुझे अपनी विद्वता की वजह से तो नहीं पर चरणवंदन प्रवृत्ति के कारण जानते थे। सो उन्होंने घर से बुलवा कर अप्प्लाई करवा दिया। मेरा सेलेक्शन अवश्यम्भावी था और ऐसा हुआ भी। अध्ययन-अध्यापन ऐसा क्षेत्र है जिसमें गुरू शिष्यों को सिखाने की प्रक्रिया में विषय ज्ञान प्राप्त करता है। जो विषय पढते समय दुरूह लगते थे पढ़ाते-पढ़ाते कंठस्थ हो गए। विद्वत समाज में उठते-बैठते मुझे अपने ज्ञानी हो जाने के बारे में कोई संशय नहीं रह गया था। छात्र तो गुरु को खुश रखने में वैसे भी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रखते। मैंने भी कई घंटाल टाइप के गुरुओं की सेवा की थी जिसका मेवा अब मिल रहा था। तभी मैंने निर्णय लिया था कि अगर गुरु बनना है तो गुरु-घंटाल ही बनना है। इस विधा के सारे गुर मालूम ही थे। छात्रों में अपना भय क्रिएट करो। पढ़ाओ कम, डराओ ज्यादा। तभी सब चेले बन के रहते हैं। वर्ना सिर चढ़ जाते हैं। भगवान् राम ने भी भय बिन प्रीत की सम्भावना से इंकार कर दिया था। 



राज योग के अपने लक्षण होते हैं। तामसी प्रवृत्तियां न हों तो कैसा राज योग। इस नाते मैंने मांस-मदिरा जैसे आसुरी गुणों को अपनी जीवनशैली बना लिया। जब ताक़त होगी तभी तो इंसान शरीर का सम्पूर्ण आनंद उठा पायेगा। जिस समाज में अधिकाँश व्यक्तिगत उन्नयन का मूल में ही भ्रष्टाचार व्याप्त हो वहाँ कदाचार कब सदाचार बन जाता है किसी को पता ही नहीं चलता। दबंग और घूसखोर आदरणीय बन जाते हैं। ईमानदारी और देशभक्ति गुनाह में तब्दील हो जाते हैं। यहाँ दवाई की तस्करी करने वाला स्वास्थ्य मंत्री बन सकता है और राशन की  ब्लैक मार्केटिंग करने वाला रसद मंत्री। ऐसे देश में सफल से सफल व्यक्ति भी यदि केजरीवाल सरकार के बनने से पहले उसके के फेल हो जाने के प्रति आशान्वित नज़र आयें तो कैसा आश्चर्य। बहरहाल मैंने सीधा और सरल रास्ता अपनाया। सिद्धांत और मूल्यों के चक्कर में कभी खुद को नहीं बांधा। पाथ ऑफ़ लीस्ट रेसिस्टेंस। जैसे नदी अपना रास्ता खुद बना लेती है। ये बात अलग है कि वो सिर्फ ऊपर से नीचे ही जा सकती है। गिरना हमेशा चढ़ने से आसान होता है। धारा के विपरीत चलने में अनावश्यक शक्ति ह्रास होता है। उधर चढ़ने में शिखर है तो इधर गिर कर भी समुद्र मिलता है। त्याग करके यदि गांधी शिखर पर पहुँचता है तो भोग करके जिन्ना भी समुद्र तक पहुँच ही जाता है। 



शिखर में एक खराबी है। आप सबके स्कैनर पर होते हैं। पूरी दुनिया आपके फिसलने का इंतज़ार कर रही होती है। ज़रा भी चूके तो हर तरफ थू-थू। जगहंसाई के पात्र बनिए सो अलग से। कीचड़ में रहिये तो चाहे फिसलिये, चाहे लोटिये, चाहे डुबकी लगाइये किसी को आपति न होगी। सरकारें मुफ्त चावल बाँट सकतीं हैं, बेरोजगारी भत्ता और कंप्यूटर भी बँट सकता है। पर केजरीवाल जल माफियाओं के रहते दिल्ली को पानी कैसे पिलाता है इस पर सभी नेताओं और मीडिया की भयंकर दिलचस्पी है। 



खैर मै अपनी बात करता हूँ। दुनिया जैसे चलती है मैंने वैसे ही चलने का निर्णय लिया और देश-समाज के लिहाज से खासा सफल भी रहा। पीएचडी वालों से दारु के साथ मुर्गा और परास्नातकों से सिर्फ दारू वसूलना अपना एक मात्र उसूल था। जब सबको आपका रेट मालूम हो तो ज्यादा दिक्कत भी नहीं होती। सब राजी-ख़ुशी मेरी ये तुच्छ इच्छा पूरी कर देते। मै भी मस्त और बच्चे भी। छात्रों पर अपनी मजबूत पकड़ थी, इसी को मै राज योग का लक्षण समझ कर आनंदित हो लेता था।



पर असली राज योग क्या होता है ये मालूम होना अभी बाकी था। समय ने करवट ली और मै उसी विभाग का विभागाध्यक्ष बना जिसमें मै पढ़ा रहा था। सीनियॉरिटी के लिहाज़ से भी अपने सहकर्मियों में वरिष्ठ हो चला था। ये मेरी पहली प्रशासनिक उपलब्धि थी। अब तक मै अपने अग्रजों की सुख-सुविधाओं का ख्याल रखता था अब मेरे सबोर्डिनेटों का ये दायित्व था कि वे मुझे खुश रखें। मुझे खुश करना इतना कठिन भी नहीं था। चूँकि यहाँ सब मेरी पूरी कुंडली जानते थे इसलिए ज्यादा दिक्कत नहीं हुयी खुद को स्थापित करने में। पर असली चुनौती तब शुरू हुयी जब मेरी नियुक्ति दूसरे प्रदेश में एक संस्थान के निदेशक के तौर हो गयी। नए लोग, नए माहौल में खुद को स्थापित करना एक चुनौती से कम नहीं था। पर अब तक मै सहज मानवीय गुणों में प्रवीण हो चुका था। ऊपर वालों को कैसे खुश रखना है ये मेरी सहज प्रवृत्ति में आ गया था। कोई प्यार से बिकता है, कोई सेवा से, तो कोई पैसे से। जिसको जो चाहिये मेरी पोटली में सबके लिए कुछ न कुछ था। पर नीचे वालों को पालतू बनाने के गुर अभी सीखना था।



अन्य अपने सरीखे (पीने-खाने वाले) निदेशकों के समक्ष जब अपनी समस्या बखान की तो सुझाव तुरंत मिल गए। पहला सरकारी नौकरी का आदमी सिर्फ और सिर्फ काम करके आगे नहीं बढ़ सकता। उसकी सी आर अफसर के हाथ होती है। सभी कर्मचारियों में इसका खौफ होना चाहिए इसी के अतिउत्कृष्ट या उत्कृष्ट होने पर उनकी पदोन्नति निर्भर रहती है। दूसरा लाइक माइन्डेड लोगों को साथ रक्खो। तीसरा आम कर्मचारी से खुद को दूर रखने से आपके बारे में हर कोई जान नहीं पता और सदैव सशंकित रहता है। पहले और तीसरे के बारे में तो कोई संशय नहीं था। दूसरे को इम्प्लीमेंट करने में मेरी आसुरी प्रवृत्तियों ने साथ दिया। मैंने लौटते ही सारे अपने नीचे के उच्च पदस्थ सहकर्मियों को दारु और चिकेन की पार्टी का न्योता दे डाला। मुझे विश्वास था लाइक माइन्डेड ऐसे ही मिल पाएंगे। साथ ही अनलाइक माइन्डेड लोग भी चिन्हित हो जायेंगे। ऐसा हुआ भी। अब वो लोग जो संघर्ष कर के शिखर तक जाना चाहते हैं सारे चिन्हित हो चुके हैं। मै उनके संघर्ष तो कठिन बनाने में यथाशक्ति-यथासम्भव योगदान कर रहा हूँ। लाइक माइन्डेड लोगों को अब पार्टी देनी नहीं पड़ती अब वे ही मुझे पार्टी देते हैं। आजकल मेरी पांचों उँगलियाँ घी में हैं और सर कढ़ाई में। जिधर मै निकल जाता हूँ लोग दड़बे में घुस जाते हैं। झुक-झुक के सलाम करते लोग किसे अच्छे नहीं लगते। इस प्रदेश के लोग वाकई उलटे हैं जितना लतियाओ उतनी वफ़ादारी पाओ। चार सौ साल की गुलामी और अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था ने गुलाम ही पैदा किये हैं। आदमी का राज आदमी के ऊपर यही राज योग है। 



मेरा राज योग अब शुरू हुआ है। राज योग शायद ऐसा ही होता हो। 



- वाणभट्ट 




    

गुरुवार, 12 दिसंबर 2013

मजमा

मजमा  

साढ़े ग्यारह बजने को थे। इलाहाबाद के चौक में घंटाघर के पास गहमा गहमी का माहौल अपने शबाब की ओर बढ़ रहा था। असली भीड़ तो एक-दो बजे के बाद होती है। जब घर-गृहस्थी से फुर्सत पा कर महिलायें पूरे बाज़ार पर हावी हो जातीं हैं। घंटाघर के पीछे छिपे मीनाबाजार की रौनक अभी इक्का-दुक्का ग्राहकों तक ही सीमित थी। कुछ लोग भीड़ बढ़ने से पहले चौक की संकरी गलियों से निकल लेना उचित समझते हैं। ये ऐसे ही लोगों की जमात थी। सेल्स मैनों की संख्या दुकान पर खरीददारों पर भारी जान पड़ रही थी। मालिक भगवानों की खुशामद में लगे थे और उनके कारिंदे काम बढ़ने के पहले एक-दूसरे से अटखेलियों का पूरा लुफ्त उठा लेना चाहते थे।

एक मौलाना ऐनक लगाए ठठेरी बाज़ार की तरफ से कब निकल आये किसी ने ध्यान भी न दिया। वो परम आदरणीय छुन्नन गुरु की प्रतिमा की ओर मुंह करके घंटाघर की घडी की ओर एकटक निहारने लग गये। उनके चेहरे की परेशानी-चिंता साफ़ पढ़ी जा सकती थी। लग रहा था कोई जिन्न घडी से प्रकट होने वाला हो। उनकी देखा देखी कुछ चिल्लर पार्टी भी मुंह उठाये घडी की ओर देखने में मशगूल हो गयी। एक बच्चे से रहा नहीं गया। पूछा ही लिया कि मियां जी क्या देख रहे हो। उन्होंने मुंह पर उंगली लगा कर उसे चुप रहने का इशारा कर दिया। बच्चों में कौतूहल कुछ और बढ़ गया। वो भी टकटकी लगा कर उधर देखने लग गए जिधर मौलाना देख रहे थे। 

एक सायकिल वाला उधर से गुज़र रहा था, वो भी इन्हें अजीबोगरीब अवस्था में देख कर रुक गया। पूछा क्या हो रहा है तो बच्चों ने उसे भी चुप रहने का इशारा कर दिया। वो भी बड़ी हसरत के साथ उस ग्रुप में शामिल हो गया। एक स्कूटर वाले भाई साहब ने अपना स्कूटर स्टैंड पर लगा दिया। और उस समूह का हिस्सा बन गए।जो लोग मार्किट में आ जा रहे थे उनकी भी उत्सुकता कुछ बढ़ गयी। धीरे-धीरे करके समूह बढ़ता ही जा रहा था और कोई भी किसी को कुछ भी बता पाने की स्थिति में नहीं था। संयोग से मेरे पास भी कुछ समय था। अटैची की चेन ठीक करने वाले के आने का समय तो हो चला था पर वो अभी आया नहीं था। उसकी दुकान ठीक घंटाघर के नीचे फुटपाथ पर हुआ करती थी। लिहाज़ा मै भी उस भीड़ में शामिल हो गया। समय बीतने के साथ-साथ लोगों के चेहरे पर उत्सुकता के भाव आ जा रहे थे। पर मौलाना थे कि भीड़ से बेफिक्र घड़ी की ओर देखे जा रहे थे। दुकानों से लोग भी निकल के बाहर आ गए। लगभग जाम की सी स्थिति बन गयी थी।   

कुछ पुलिसिया भी वहाँ आ गये। और तहकीकात में जुट गए कि क्या हो रहा है। पर किसी को कुछ मालूम हो तो बताये भी। वो भी घडी की ओर सर उठा के खड़े हो गए। अजीब माहौल बन गया कि पता नहीं घंटाघर में क्या होने वाला है। जो आये वहीं पर थम जाए। कुछ लोग दूरबीन ले आये ताकि सही-सही देख सकें। वहाँ होने वाली वाली किसी घटना से वो चूक न जायें। भीड़ में कुछ प्रेस फोटोग्राफर भी आ गये और विभिन्न एंगल से भीड़ की फ़ोटो लेने में लग गए। पुलिस वालों को काम मिल गया। वो भीड़ को हांकने में जुट गए। पर भीड़ थी कि एक तरफ से हटती तो दूसरी तरफ जा खड़ी होती। सबकी निगाह घड़ी की टिक-टिक करती सुइयों पर टिकी थी। 

मौलाना भीड़ से बेफिक्र ही रहे और धीरे से वापस ठठेरी बाज़ार की ओर चल दिये। किसी का उनकी ओर ध्यान भी नहीं गया। सब तन्मय हो कर ऊपर देखने में व्यस्त थे। कोने पर बैठे तमोली ने मौलाना को भीड़ से निकलते देख लिया। पूछा ये क्या मज़मा लगा दिया मियाँ। मियाँ बोले बारह बजे पोती को स्कूल से लेने जाना होता है। आज मेरी घड़ी ख़राब हो गयी थी इसलिए घंटाघर आ गया। बारह बज गए हैं मै जा रहा हूँ पोती को लेने। तमोली ने कहा कल फिर आइयेगा। आप के फ़ज़ल से खूब पान बिक गए सुबह-सुबह।

घंटाघर पर भीड़ बढती ही जा रही थी। मेरी अटैची वाले का अभी तक कोई अता-पता नहीं था।   

- वाणभट्ट 

अंत में : ये घटना विनय भाई ने सुनाई थी। ये भाई टाइप के भाई नहीं हैं। ये वाकई भाई हैं। इस कथानक का कॉपीराइट उनका ही है। मेरी तरफ से ये कहानी कॉपीलेफ्ट है। दिल खोल के कॉपी कीजिये, पेस्ट कीजिये।  
   

रविवार, 17 नवंबर 2013

महान लोगों का देश

महान लोगों का देश 

पैदा होने के कुछ ही वर्षों में, जब मै होश सम्हाल रहा था, तभी मुझे ये एहसास हो गया था कि मै किसी महान देश में अवतरित हो गया हूँ। घर के अंदर पुरखों की फ़ोटो घरेलू मंदिर में भगवान के ऊपर शोभायमान हुआ करतीं थीं। स्कूल पहुंचा तो स्कूल का नाम ही महापुरुष के नाम पर रक्खा हुआ था। प्रधानाचार्य के कमरे से ले कर क्लासरूम तक हर कमरे में महापुरुष विद्यमान थे। लाइब्रेरी की सारी दीवार महापुरुषों की फोटोज़ से भरी हुई थी। सबके दैदीप्यमान चेहरे छात्रों को आकृष्ट किये बिना न रहते। सडकों के नाम महापुरुषों पर और हर चौराहे पर किसी महापुरुष की मूर्ति।इस बात में कतई शक़ नहीं की भारत भूमि ने अनेकों महापुरुष पैदा किये हैं। जिनके बारे में पढ़ कर हम उन पर और खुद पर गर्व किये बिना नहीं रह सकते। ये बात अलग है कि उनके विचारों और कृत्यों को अपने जीवन में उतारना सदैव कठिन रहा है इसलिए हम सिर्फ फ़ोटो और मूर्ति लगा कर महान लोगों को श्रद्धांजलि दे लेते हैं। उनके ऋण से उऋण होने का शायद ये ही सबसे आसान तरीका है। 

घर के पास चौराहे पर एक महापुरुष की प्रतिमा स्थापित थी। एक बार गर्मी की छुट्टियों में पिता जी के साथ प्रातःकाल टहलने निकला तो पिता जी ने एक प्रश्न किया कि यदि ये मूर्ति जीवित हो जाये तो सबसे पहले क्या करेगी। हम  भला क्या बताते। उत्तर भी उन्होंने ही दिया सबसे पहले अपने सर से चिड़िया की बीट साफ़ करेगी। यानि मूर्तियों को स्थापित तो कर दिया पर उनका रख-रखाव भगवान भरोसे ही था अर्थात उन मूर्तियों को सफाई के लिए बरसात का इंतज़ार रहता। कुछ मूर्तियां जो रूलिंग पार्टी की हुआ करतीं, वो महापुरुष के जन्म और मरण दिवस पर अवश्य धुल जातीं पर सरकार बदल जाए तो उनका भी वही हश्र हुआ करता जो अन्य मूर्तियों का होता था। कुछ महान लोग सत्ता से परे थे। शिक्षा, साहित्य, कला या लोकल कार्यकर्त्ता अपनी मूर्तियों की दुर्गति अगर खुद देख लेते तो बहुत सम्भव है महान बनने से इंकार कर देते। कहते भाई जीवन भर तो हम देश-समाज सेवा के चक्कर में अभावों में जिये अब मरने के बाद तो हमें बक्श दो। 

कालांतर में हमें बड़े होना लिखा था सो बड़े हुए भी। लगभग पचास बसंत पूरे होने को हैं। इस अवधि में बहुत लोगों को महान बनते देखा और बहुत लोगों को महान बनाते देखा। प्रजातंत्र में प्रजा ये निर्णय लेती है कि कौन सरकार बनाये और सरकार ये निर्णय लेती है कि वो किसे-किसे महान घोषित करे। इस प्रकार अंततोगत्वा ये मान लिया जाता है कि प्रजा इन्हें महान मानती रही है सरकार तो बस माध्यम मात्र है। पता नहीं विदेशों में महानता आइडेंटिफाई करने के क्या मानक हैं। हाल ही में अमेरिका में संगीतकार श्री ए. आर. रहमान के नाम पर किसी सड़क का नामकरण हुआ है। बाहर देशों में गांधी, टैगोर, लता और रविशंकर जी को भी सम्मान मिला है। ये भारत की वैश्विक पहचान बन गए हैं। यहाँ तो एक ग्रुप किसी को आइडेंटिफाई करता है तो दूसरा ग्रुप भी अपना एक महापुरुष खोज लाता है। कहता है कि एक आपका तो एक हमारा भी। अगर पावरफुल ग्रुप ने दूसरे ग्रुप का कुछ कर्जा खा रक्खा है तो मामला सेटेल वर्ना दूसरे ग्रुप को अपने पावर में आने तक इंतज़ार करना पड़ सकता है। 

जो भी सत्ता में आया उसके सभी पुरखे महान हो गए। विश्व बंधुत्व का सन्देश देने वाला देश शुरूआत अपने परिवार से ही करता है। इस मामले में वो अंग्रेजी कहावत 'चैरिटी बिगिन्स ऐट होम' को अपना ब्रम्हवाक्य मान लेता है। ये तो गनीमत है कि भाई-चारे वाले इस देश और इस देश के प्रदेशों में कुछ गिने-चुने परिवारों का ही राज रहा है। इसलिए महान लोगों की संख्या भी सीमित रह गयी। भला हो जनता का जो उन्हीं लोगों को बार-बार चुनती रही वरना महानता की फेहरिश्त कहाँ रुकती कहना मुश्किल है। हर साल सत्ता पक्ष कुछ महान लोगों को चिन्हित करता है तुरंत प्रतिपक्ष वाले कुछ और नाम उछाल देते हैं। सीधा सवाल होता है कि अगर आप अपने वाले को महान समझते हैं तो हमारे वाले महानता में किससे कम हैं। अभी एक निर्विवाद रूप से महान व्यक्ति को देश ने सम्मान दिया। पर विवाद करने वालों का क्या वो तो इसी ताक में रहते हैं उन्होंने कहना शुरू कर दिया इनसे पहले इन्हें अवार्ड दिया जाना चाहिए था।   

जिन लोगों ने देश, प्रदेश, जनता के लिए प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में कुछ किया उनका महान हो जाना वाकई गौरव की बात है। पर जो लोग सिर्फ इसलिए महान हो गए कि उनके पोते या पर-पोते पावर में आ गए तो अफ़सोस होता है। परन्तु मै  इस व्यवस्था का विरोध नहीं करता। कल का क्या पता। हमारे भी पोते या पर-पोते या उनके बच्चे कभी पावर में आ जाएं तो मेरे नाम पर एक सड़क, एक मोहल्ला या एक शहर बन जाए और महान ब्लॉगर वाणभट्ट भी अमर हो जाए। पर मै अपनी वसीहत में लिख जाउंगा कि अगर किसी चौराहे पर मेरी मूर्ति लगवाना तो मूर्ति नॉन-स्टिक मटेरियल की होनी चाहिए ताकि चिड़िया की बीट न चिपके।  

- वाणभट्ट 

शनिवार, 9 नवंबर 2013

चिंता

चिंता

चिंता, चिता के सामान है, ऐसा मै नहीं लोग कहते हैं। चिंता की बिंदी भी वहीँ जा के हटती है। चूँकि लोकतंत्र में संख्याबल का महत्त्व है इसलिए ये मानने  में कतई गुरेज़ नहीं है कि चिंता का दुष्प्रभाव अंततः चिता तक ले जा सकता है। वहाँ तक पहुंचने के अनेक कारक हो सकते हैं, उनमें चिंता को भी जोड़ लेना उचित होगा। चिंता को शब्दों में व्यक्त करना थोडा कठिन है पर इस धरती पर जिसने भी मानव योनि में जन्म लिया, उसका इस आपदा से बच पाना कतिपय असम्भव है। इसे आप व्यथित या व्याकुल करने वाले विचार के रूप में परिभाषित कर सकते हैं। जैसे हर चीज़ के आकर-प्रकार होते हैं चिंता भी कई आकर-प्रकार की हो सकती है। आकर के अनुसार चिंता को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है - छोटी चिंता और बड़ी चिंता। और प्रकार के हिसाब से ये व्यक्तिगत या सार्वजनिक या सार्वभौमिक हो सकती है। अब अगर हम आकर-प्रकार को क्लब करें तो निम्न प्रकार कि चिंताएं पायी जा सकतीं हैं -

          1 . छोटी व्यक्तिगत चिंता 
          2 . छोटी सार्वजनिक चिंता
          3 . छोटी सार्वभौमिक चिंता
          4 . बड़ी व्यक्तिगत चिंता
          5 . बड़ी सार्वजनिक चिंता
          6 . बड़ी सार्वभौमिक चिंता

अगर इनका आर्थिक विश्लेषण किया जाये तो निश्चय ही हम इस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे चिंताओं का आर्थिक पक्ष भी हो सकता है। गरीब की चिंता और अमीर की चिंता। अमूमन ये देखा गया है कि छोटी चिंता छोटे लोग करते हैं और बड़े लोग बड़ी चिंता। छोटी चिंता करने वाला सिकुड़-सिकुड़ के छोटा होता चला जाता है और अंततोगत्वा चिता तक पहुँच ही जाता है। छोटी चिंता करने वाला चिंताओं को पोषित करता है पर उनका निराकरण न कर पाने के कारण उन्हीं में उलझता जाता है। पर बड़ी चिंता करने वाला दिन प्रति दिन बड़ा होता चला जाता है। चिंता जितनी बड़ी और सार्वभौमिक होगी आदमी उनता है महान और समृद्ध होता चला जायेगा। इसलिए इन सभी प्रकार की चिंताओं में मै बड़ी-सार्वभौमिक-चिंता को सर्वोपरि रखता हूँ।

समाधान तो बड़ी चिंता करने वाला भी नहीं खोज पाता। वो एक समस्या क्रिएट करता है। फिर उस चिंता को एन्लार्ज करना शुरू कर देता है। फिर उसका ब्रांड एम्बेस्डर बन जाता है। फिर धीरे-धीरे अपनी चिंता कि लॉबीइंग करने लगता है। धीरे-धीरे उसकी चिंता समाज-देश-दुनिया की चिंता बन जाती है। सोते-जगते वो उसी समस्या को तब तक जीता है जब तक उसे एन्जॉय करना न शुरू कर दे। इसके लिए देश-विदेश में जन-जागरण के लिए पंचतारा होटलों में वृहद् सेमिनार्स होंगे। देश-विदेश के विद्वत जन जो हर समय सम्भावित सार्वभौमिक समस्याओं पर अपनी तिरछी नज़र गड़ाए रखते हैं, वो अपने-अपने देश की सरकारों को ये विश्वास दिलाने में जुट जाते हैं कि ये आज अमरीका की समस्या है तो कल हमारी समस्या भी बन सकती है। इसलिए फलाँ कॉन्फ्रेन्स में उनकी मौजूदगी नितांत आवश्यक है। भारत पहले से ही 'पार्टिसिपेशन इस मोर इम्प्रोटंट दैन विनिंग' के सिद्धांत पर काम करता आया है। इसलिए हर फोरम पर अपना नुमाइंदा न भेजे ऐसा सम्भव नहीं है। समस्या से समाधान के लिए आवश्यकता होती है फंड्स की। और अधिक से अधिक धन उगाही के लिए समस्या जितनी बड़ी और सार्वभौमिक होगी उतने ही अधिक देश समाधान के लिए दिल और जेब खोल के खर्च करेंगे। पृथ्वी के समस्त देशों ने कुछ देशों को हर क्षेत्र में लीडर मान ही रक्खा है सो अधिकांश धन तो उन्हीं की झोली में जाना है और बाकि एसोशिएटेड देश ये मान कर ही खुश हो लेते हैं कि हम एक महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट में महान देशों के साथ हैं या हम भी इस मिशन में शामिल हैं।    

चिंताएं कैसे ग्लोबल हो जातीं हैं ये हम सबने देखा है। पहले चिंता थी कि कैसे अपना पेट भर जाये। फिर चिंता हुई कि हमारे परिवार और इष्ट-मित्र भी ठीक-ठाक खाते पीते रहें। फिर चिंता हुई कि पूरे देश का एक भी व्यक्ति भूखा नहीं रहना चाहिए। जब इसी समस्या को ग्लोबल कर दिया गया तो इसका आयाम खरबों रुपये तक पहुँच गया। इस समस्या के समाधान में लाखों लोग जुट गए। कितने ही अलाइड सेक्टर खुल गए। सेमिनार, सिम्पोसिआ, ट्रेवल, हॉस्पिटैलिटी आदि अनेक अवसर रोजगार के बन गए। एक समस्या कैसे लाखों लोगों का पेट भर सकती है, रोजगार दे सकती है ये इसका एक नायब उदाहरण है। 

आज कल ग्लोबल वार्मिंग और क्लाइमेट चेंज का मुद्दा दुहा जा रहा है। बढती जनसंख्या को खाना खिलाना एक बड़ी समस्याओं है और जब तक क्लाइमेट पर मानव जाति का कंट्रोल नहीं हो जाता तब तक इस समस्या का समाधान नहीं हो सकता। इसलिए हम ऐसी उन्नत फसल तैयार करने में लगें हैं जो गर्मी-सर्दी झेल ले। कीटों के प्रकोप से बेअसर रहे। बिना पानी के जीवित रहे। और उत्पादन प्रति व्यक्ति आवश्यकता को पूरा कर सके। अगर ये ख्वाब आपको सोने नहीं दे तो ये समस्या स्वागत योग्य है। पर इस ख्वाब को देखने और दिखाने वाले गहन निद्रा में डूबे हुए हैं और जागने को तैयार भी नहीं लगते। आज के उपलब्ध संसाधनों का सदुपयोग करके हम समस्याओं से कुछ हद तक निजात पा सकते हैं। कुशल प्रबंधन के द्वारा वैज्ञानिकों और किसानों ने विपरीत परिस्थितियों में उत्कृष्ट उत्पादन लिया है। उन मॉडलों को दोहरा कर उत्पादन बढ़ाना कदाचित आसान तरीका हो सकता है। रिवर लिंकिंग और भूमि जल रिचार्ज के द्वारा रेनफेड क्षेत्रों में जल की उपलब्धता बढ़ाई जा सकती है। एक कहावत है थिंक ग्लोबली एक्ट लोकली। यदि उन बातों का ध्यान रक्खें तो हम सब विश्वव्यापी समस्याओं के निदान में भागीदार हो सकते हैं। 

यहाँ एक ख़ास बात है कि सपना या तो दिल्ली में देखा जाता है या अमेरिका में। बड़े देशों की देखा-देखी छोटे देश भी उन्हीं समस्याओं को महसूस करने लगते हैं। यहाँ समस्याएं और समाधान केंद्र से आते हैं। उनके लिए अरबों-खरबों का वित्तीय प्रावधान कर दिया जाता है। और ग्राउंड लेवल पर तरक्की जीरो बटा सन्नाटा। छोटी-छोटी समस्याओं को इंटीग्रेट कर के हम बड़ी समस्याएं बना लेते हैं। बड़ी समस्याओं का समाधान बहुत फण्ड मांगता है। फिर हर गांव, हर शहर, हर समुदाय की समस्याएं एक नहीं हो सकतीं तो समाधान एक कैसे हो सकता है। अक्सर ये भी देखा गया है कि फण्ड तो उपलब्ध करा दिया जाता है पर उस कार्य का क्रियान्वयन उन लोगों के हाथ सौंप दिया जाता है जो तकनीकी और प्रशासनिक रूप से या तो समस्या से जुड़े ही नहीं हैं या अक्षम हैं। मेरे विचार से समस्याओं को इंटीग्रेट करके समाधान खोजने के बजाय हर छोटी-छोटी समस्या का निदान करना चाहिए। और ये निदान उन्हीं के सहयोग से करना चाहिए जिनकी ये समस्या है। इससे न सिर्फ जन-सहयोग मिलेगा बल्कि लोग भी उन समस्याओं के प्रति संवेदनशील बनेंगे जो उनसे सम्बन्ध रखतीं हैं।किसी भी समाधान को चुनिंदा जगहों पर मॉडल के रूप में विकसित करना चाहिए फिर उन्हीं प्रूवेन तरीकों को अन्य जगहों पर रिपीट करना कारगर सिद्ध हो सकता है। 

एक पर्यावरण प्रेमी कि दिनचर्या पर अगर नज़र डालें तो शीघ्र समझ आ जाता है कि चिंता करने वाले चिंता करने के लिए ही पैदा हुए हैं और उनका समाधान दूसरे कैसे कर सकते हैं ये उनके भाषण कि प्रिय विषयवस्तु है। पर्यावरण संरक्षण पर भाषण देने वाला दस लीटर पानी अपने फ्लश में बहा देता है। ब्रश करते और दाढ़ी बनाते समय नल खुला ही रखता है। आर ओ का प्यूरीफाइड पानी पीता है, एसी कमरे में सोता है, लम्बी शोफर ड्रिवेन गाड़ी में पीछे बैठ कर पाँच अख़बारों की सहायता से दिल्ली के जाम से निपटता है। एसी गाड़ी से निकल कर ए सी कमरे में शोभायमान हो जाते हैं। मीटिंग में एसी खराब हो जाये तो साहब का पारा गरम होने की आशंका होती है। जैसे कम्प्यूटर के प्रोसेसर को ठंडा रखना अनिवार्य है वैसे ही इन साहिबानों का दिमाग। आखिर इनका ये ही पार्ट सबसे ज्यादा काम करता है। देश-विदेश में कहीं भी पर्यावरण पर परिचर्चा होगी तो साहेबान का हवाई टिकट कटा होगा। भाषण के अलावा इनके किसी कृत्य से पर्यावरण प्रेम खोज पाना शायद मुश्किल हो। मेरे इस कथ्य के अपवाद हो सकते हैं पर यदि उनकी संख्या ज्यादा होती तो सुधार अब तक महसूस होने लगता।    

प्रत्येक देश-काल में ऐसी सार्वभौमिक चिंताएं शामिल रहीं हैं। एड्स, कैंसर, नशा मुक्ति, पर्यावरण, जैव विविधता, ग्लोबल वार्मिंग, क्लाइमेट चेंज, भूमि जल संरक्षण, पॉपुलेशन एक्सप्लोजन, मॉल न्यूट्रीशन इत्यादि-इत्यादि ऐसे मुद्दे रहे हैं जो युगों से छाये रहे हैं। आशा है युगों तक छाये रहेंगे। उसकी चिंता करने वाले दिन-दूनी रात चौगुनी तरक्की करते रहे हैं और करते रहेंगे। समस्या के समाधान से ज्यादा तरज़ीह उन्होंने समस्या को पोषित करने में दी है। क्योंकि अगर समस्या ख़तम हो गई तो धरती पर उनकी आवश्यकता भी कम हो जायेगी। कोई संस्था जानवरों के प्रति एथिकल ट्रीटमेंट के लिए काम कर रही है, कोई मानव से मानवोचित व्यवहार के लिए. समस्याओं की कमी नहीं है बस वो नज़र चाहिए जो मुद्दे खोज ले, बना ले। वो दिन अब लद गए जब काजी जी शहर के अंदेशे में दुबले हो जाया करते थे। अब तो जो जितना बड़ा काजी है उतना ही हट्टा-कट्टा नजर आता है। एयर कंडीशन कमरों में मीटिंग, गरिष्ठ काजू-बादाम के स्नैक्स और लज़ीज़ व्यंजन, आरामदायक पाँच सितारा होटलों की हॉस्पिटैलिटी मज़बूर कर देतीं हैं कि समस्याएं ऐसे ही पनपती रहे और समाधान के लिए बैठकें दुनिया के जाने-माने शहरों के आलिशान होटलों में होती रहें। जिनकी समस्याओं में जीने कि आदत पड़ गयी है वो चाहते हैं कि ये सपना चलता रहे, पलता रहे और समाधान कभी न निकले, काश। कम से कम इस जीवन में तो नहीं।  

बड़ी विश्वव्यापी चिंता, चिता कतई नहीं है। अपनी चिंताओं का आयाम बढाइये। इसलिए जब भी चिंता कीजिये देश-दुनिया की कीजिये। बड़ी चिंताएं कीजिये हुज़ूर, छोटी-छोटी चिंताएं स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं। 


- वाणभट्ट 






बुधवार, 23 अक्तूबर 2013

कर्तव्य परायणता

कर्तव्य परायणता

साथियों आज सुबह से बचपन में पढ़ी एक कहानी कर्तव्य परायणता बार-बार याद आ रही है।  लेखक का नाम बहुतेरा याद करने पर भी नहीं याद आ रहा है। कोई सुधि पाठक गण मेरी मेमोरी रिफ्रेश करें तो मेहरबानी होगी। मेरा ख्याल काका कालेलकर या वियोगी हरि जी से आगे नहीं जा पा रहा है। 

बहुत छोटी घटना पर आधारित थी ये कहानी। लेखक महोदय किसी नाई के यहाँ बाल कटवाने पहुँचते हैं। वहाँ आरा मिल में काम करने वाला एक मजदूर भी बैठा होता है। उसके बाल धूल और बुरादे से बुरी तरह गंदे और चीकट हो रक्खे थे। लेखक को एक आस जगती है कि शायद नाई उनके व्यक्तित्व से प्रभावित हो कर मजदूर से पहले उनके बाल काट दे। पर नाई न सिर्फ पहले से बैठे मजदूर को वरीयता देता है बल्कि लेखक को रुखाई से मना कर पूर्ण तन्मयता से मजदूर के बाल काटने में जुट जाता है। लेखक उसकी कर्तव्य परायणता से अभिभूत हो जाता है। 

आज की घटना भी कुछ ऐसी ही थी। ट्रेन आई तो जनरल कोच पूरी तरह से ठुंसा पड़ा था। दिल्ली से ही लॉन्ग रूट की ट्रेनों के जनरल कोच को पुलिसिया सहायता से भर दिया जाता है और यात्रियों को गेट न खोलने की हिदायत भी दे दी जाती है। सुबह तड़के कानपुर जब ट्रेन आई तो सामान्य यात्री कोच की स्थिति कुछ इसी प्रकार थी। कोच ठसाठस भरा पड़ा था और कोई गेट खोल के भी राजी न था। चूँकि घर से निकल पड़े थे तो यात्रा करना लाज़मी था। जब जेब में पैसे हों तो नियम-कानून को अपनी जेब में रखना हर सम्माननीय भारतीय का कर्तव्य भी बन जाता है। इसलिए स्लीपर कोच में पदार्पण करने में ज़रा भी हिचक महसूस नहीं हुई। इधर यात्रायें जीवन का एक हिस्सा सी बन गयीं हैं इसलिये गंतव्य तक पहुँचना प्राथमिकता बन गया है और यात्रा का माध्यम लगभग गौण। 

उसी कोच में एमएसटी वाले बन्धु-बांधवों को चढ़ते देख रहा-सहा संकोच भी जाता रहा। संयोग से ऊपर की एक खाली बर्थ भी मिल गयी सो अपन वहीं लम्ब-लेट हो लिये। रोज यात्रा करने वाले अपने मस्त अंदाज़ में सो रहे यात्रियों से चुहलबाजियों में लग गए। ये उनका रोज का शगल था। कोई कहीं अटक लिया तो किसी ने सोते यात्री को सूचना दी कि भाई सूरज निकल चुका है अब उठ के बैठने में ही आपकी और हमारी भलाई है। टी.टी. को आना ही था और वो आया भी।

स्लीपर कोच में सिर्फ स्लीपर के यात्री रहे हों ऐसा भी न था। कुछ बाथ रूम के पास खड़े थे कुछ ज़मीन पर ही अखबार बिछा कर हसीन सपनों में खोये पड़े थे। टी.टी. जब कोच में घुसा तो पहले से यात्रा कर रहे यात्रियों के अलावा सभी की आबो-हवा कुछ बदल सी गयी। सरकार ने एक काम बहुत अच्छा कर रक्खा है कि जिन पदों में आम जनता को काट खाने की ताक़त दी है, उन्हें एक ख़ास वर्दी भी दे दी है। ताकि लोग उन्हें पहचानने में भूल न करें और सतर्क हो जायें कि किस-किस से बच के रहना है। काला कोट ही टी.टी. को आम आदमी से अलग कर रहा था। चेहरे पर सरकार की ड्यूटी पर होने का दर्प भी साफ़ झलक रहा था। साथ में ऑटोमेटिक गन लिए एक पुलिसिया उसके आभामंडल को और भी दैदीप्यमान कर रहा था। मैंने पर्स से पचास का नोट निकाल कर ऊपर की जेब में रख लिया। टीवी पर स्टिंग ऑपरेशन्स में जब से बड़ों-बड़ों को बिकते देख लिया है, तब से आम हिन्दुस्तानी का भरोसा बढ़ सा गया है। बाबू जी तुम क्या-क्या खरीदोगे, यहाँ हर चीज़ बिकती है।  

इन वर्दी वालों की घ्राण शक्ति बहुत ही विकसित होती है। ये सूँघ कर लक्ष्मी मैया का अता-पता ढूँढ निकलते हैं। सारे एमएसटी वालों को छोड़ता हुआ वो मेरी बर्थ के सामने खड़ा हो गया। जिनके लिए घर से बाहर निकला हर एक शख्श एक चलता-फिरता एटीएम है वो जमीन में गड़े खजाने की खोज में दिलचस्पी नहीं रखते। उसमें मेहनत ज्यादा है और चारों ओर जनता, प्रेस और मिडिया का जमावड़ा रहता है। कुछ निकल भी आया तो इन सबके रहते कुछ मिलना ना-मुमकिन है। इसलिए ये बड़े खज़ानों को छोड़ कर छोटे किन्तु अवश्यम्भावी ख़जानों में अधिक विश्वास रखते हैं। आखिर बूँद-बूँद से ही तो सिन्धु बना है। 

उसने कड़क अंदाज़ और रौबीली आवाज़ में मेरा टिकट माँगा। मैंने जनरल का टिकट उसके हाथ में थमा दिया। उसने निस्पृह भाव से टिकट देखते हुये बताया कि ये तो जनरल का टिकट है और आप स्लीपर क्लास में बैठे हैं। क्लास शब्द को उसने कुछ ऐसे एम्फेसाईज़ किया मानो मै एसी कोच में घुस गया हूँ। मैंने बताया जनरल कोच में तिल रखने की भी जगह नहीं थी और कोई दरवाजा भी नहीं खोल रहा था। उसने छूटते ही कहा ये मेरी समस्या नहीं है। अगर आपको स्लीपर में यात्रा करनी थी तो रिज़र्वेशन करा कर ही अन्दर घुसना था। पढ़े-लिखे आदमी हैं आप तो स्लीपर और जनरल का फ़र्क नहीं जानते। आजकल मुझे पढ़े-लिखे शब्द से चिढ हो गयी है। पढ़े-लिखे लोगों ने ही तो देश का नाश पीट रक्खा है। अगर वो ही सुधर जाते तो देश की दशा और दिशा बदल चुकी होती। पढ़-लिख के आदमी दब्बू और डरपोक बन गया है। मैंने सीरियसली कहा - भाई कुछ भी बोल ले पर पढ़ा-लिखा बोल के दुखी न कर। उसे लगा मै इस विषम परिस्थिति में उससे मजाक कर रहा हूँ। उसकी वर्दी और उसमें निहित उसके अहंकार को घनघोर ठेस लग चुकी थी।बोला जानते हैं डिफ़रेंस और पेनाल्टी मिला के चार सौ देने पड़ेंगे। ये कहते हुए उसने रसीद बुक अपने कोट की जेब से निकाल ली और उसके पन्नों के बीच कार्बन ठीक करने लगा।  

उसी क्षण मुझे कर्तव्य परायण नाई की याद आ गयी। मेरा सबाका एक देशभक्त और कर्तव्य परायण टी.टी. से हो चला था। जो आज मेरी पेनाल्टी काट कर ही मानेगा। ये आज के युग का एक रेयर फेनोमेना था। उसने पैसे की कोई डिमांड भी नहीं रक्खी और पेन-वेन खोल के तैयार। जेब में जब पैसे हों तो आत्मविश्वास वैसे ही रहता है जैसे स्कूटर चलाते समय हेलमेट की सुरक्षा। मैने पचास का नोट ऊपर की जेब से निकाल लिया। उसने प्रश्नवाचक नज़रों से मेरी ओर देखा। ये क्या है। मुझे अपना पर्स निकालना ही पड़ गया। मैने कहा - फुटकर नहीं है। उसने मेरे पर्स के अन्दर निगाहें गड़ा दीं। हज़ार-पांच सौ के नोटों के साथ एक सौ का नोट भी निकल आया। उसने लपक कर सौ का नोट पकड़ लिया और बोला - भाई साहब आपको इलाहाबाद तक ही तो जाना है। इतनी दूर के लिए खामख्वाह पेनाल्टी लेना हमें भी अच्छा नहीं लगता। आप पढ़े-लिखे आदमी हैं, मज़बूरी न होती तो क्या स्लीपर में घुसते। 

मै मुस्कराते हुए बोला यार सुबह-सुबह पढ़ा-लिखा तो मत बोल। तब से इसी उधेड़-बुन में हूँ। पहले के जमाने में एक अनपढ़ नाई कर्तव्य परायण हो सकता है। पर आज़ादी के साठ सालों के बाद भी देश का पढ़ा-लिखा तबका कर्तव्य परायणता से कोसों दूर है। 

कहानी के लेखक का नाम यदि किसी को पता हो तो अवश्य बताइए। इंतज़ार रहेगा। 

- वाणभट्ट

गुरुवार, 26 सितंबर 2013

सफलता की गाथा

सफलता की गाथा  

आजकल मीडिया में समाचार को सेंसेशनल तरीके से पेश करने का चलन ना-काबिल-ए-बर्दाश्त की हद तक पहुँच गया है। पर जैसी की एक अंग्रेजी उक्ति है 'बेगर्स आर नॉट चूज़र्स'। न्यूज़ और टी वी देखना हमारी विशुद्ध पर्सनल बीमारी या मज़बूरी, जो भी कह लें, है। किसी डॉक्टर ने तो कहा नहीं है कि देश-दुनिया का हाल अगर आप नहीं जानेंगे तो फलां रोग लग जायेगा। ना ही किसी वैद्य ने बताया कि चैनल सर्फ नहीं करोगे तो वायु-पित्त-कफ में से एक या तीनों टाइप के विकार होने की सम्भावना है। ये वन वे ट्रेफिक है। तो भाई चैनल जो भी दिखाए, देखना ही पड़ता है। चैनेल्स की प्रतिस्पर्धात्मक मजबूरियां इतनी ज्यादा हैं कि हर चैनेल अपने समाचार को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने में जुटा हुआ है। और जो लोग सास-बहु, घर-उजाड़, हंसाते-भूत, सच्ची-कथाएँ टाइप के सोप ऑपेराओं का आनंद लेने में असक्षम हैं उनके लिए तो न्यूज़ चैनेल की सर्फिंग के अलावा कोई काम बचता ही नहीं। इन चैनलों पर भी न्यूज़ कम और इश्तहार ज्यादा। पर इसी को तो मज़बूरी कहा जाता है। जैसे उडि जहाज को पंछी पुनि जहाज पर आवै। टी वी के सामने बैठ कर मै सलमा सुल्तान के ज़माने को याद करते हुए दूर-दर्शन न्यूज़ और आजकल के सनसनी खेज़ समाचारों का तुलनात्मक विश्लेषण कर ही था कि एक चैनेल पर सनसनी टाइप के पत्रकार ने न्यूज़ फ्लैश की "प्याज़ की जमाखोरी से किसान ने लाखों कमाये "।

प्याज़ के बढ़ते दामों से तो पूरा देश चिंतित है। जनता परेशान तो सरकारें भी परेशान। पहले भी ऐसा होता रहा है। जब-जब प्याज़ के दाम बढ़े सरकारों की नींदें हराम हो गयीं। ये तो एक ऐसी कमोडिटी बन चुका है जो सरकार बना भी सकता है और गिरा भी। प्याज़ की राखी बन रही है, संता -बंता के चुटकुले बन रहे हैं, दहेज़ और गिफ्ट में भी प्याज़ का ज़िक्र।सोशल साइट्स पर भी ये मुद्दा छाया हुआ है। प्याज़ और प्याज़ के दाम के लिए इतनी चिल्ल-पों को देख कर लगता है जैसे ये कोई जीवन- दायनी आधारभूत खाद्य सामग्री हो। अगर ये न हो तो आदमी भूखा मर सकता है। हिंदुस्तान के कई धर्मों-सम्प्रदायों में प्याज़-लहसुन का प्रयोग निषिद्ध है। इसे तामसी प्रवृत्ति का माना गया है। पर मनुष्य ही क्या जो प्रवृत्तियों का दास न हो। नहीं तो महात्मा नहीं बन जायेगा वो। इनके खाने वाले इनके गुण गिनाते नहीं थकेंगे। पर यही बात काजू-बादाम-अखरोट पर भी लागू होती है। बहुत फायदे हैं इनके। पर हम अपनी-अपनी औकात और जेब अनुसार इन शुष्क फलों का आनंद लेते हैं या नहीं लेते हैं। लेकिन इनके बिना कोई भूखा नहीं रहता। कोई हाहाकार भी नहीं मचता। फ्री में मिल जाये तो चबैने सा चबा लें और खरीद के खाना हो तो एक-एक काजू का लुफ्त उठाएं। ये मामला पूरी तरह आर्थिक है जिसके पास पैसा हो उसकी तो रोटी भी चुपड़ी होती है। जिसके पास नहीं है वो दाल के पानी में रोटी भिगो के खाए या नमक के साथ, ये उसका अपना ऑप्शन है। तो निवेदन ये है की भाई हैसियत नहीं है तो प्याज़ क्यों खानी। प्याज़ के बिना क्या नहीं रहा जा सकता। स्वाद की बात है तो जब प्याज़ सस्ता हो जाये तब साल भर की सारी तमन्ना निकाल लीजिये।पर आजकल ऐसी आग लगी है गोया प्याज़, प्याज़ न हो कर पानी हो गया हो। जिसके बिना सारा जग सूना-सूना लग रहा हो। रहीम दास जी आज होते तो बहुत संभव है कि लिख देते -

रहिमन प्याज़ राखिये बिन प्याज़ सब सून, 
फोटो चेपिये फेसबुक पर, खाते दोनों जून।  
वह-वाह, वह-वाह (अपनी दाद खुद ही देनी पड़ती है आजकल। लोगों के पास व्यस्त जीवन में ब्लॉग पढ़ने और समझने का समय ही कहाँ होता।)

चूँकि ये सिर्फ और सिर्फ स्वाद का मामला है तो बहुत संभव है कि ये हाहाकार समृद्ध लोगों ने ही मचा रक्खी हो। क्योंकि कि आम-आदमी तो रुखी-सूखी खाय के साफ़ पानी को भी तरस रहा है। ठन्डे की तो बात ही क्या करनी, उसका मतलब तो कोका-कोला होता है। लहसुन-प्याज़ के बारे में वो हो सोच सकता है जिसने दो जून के आटे-दाल-चावल-तेल-केरासिन का जुगाड़ कर लिया हो। जमाखोरी भी तो अमीरों की ही देन है। सीधा डिमांड-सप्लाई का नियम है। डिमांड बढ़ाने के लिए सप्लाई कम कर दो। फिर मुंह माँगा दाम वसूलो। ये बात सिर्फ प्याज़ पर नहीं भारत में हर चीज़ पर लागू हो सकती है और होती रही है। बचपन में मुझे याद है जब जाड़ा आता था तो बोरोलीन या तो मिलती नहीं थी या मिलती थी तो प्रिंट मूल्य से दो रुपये ज्यादा में। अमीरी ऐसे ही तो आती है। बिजनेस और राजनीति में एथिक्स का सर्वथा अभाव रहा है। एक तरफ इनका गठबंधन किल्लत बनाता है और दूसरी तरफ जनता से ज्यादा पैसा वसूल लिया जाता है। चाहे वो चीनी रही हो या गैस, दाल रही हो या गेहूं, आलू रहा हो या प्याज़। इस मामले में हमारे व्यापारी बहुत ही स्मार्ट रहे हैं और सारा सरकारी अमला तो मात्र इन्हें सपोर्ट करने के लिए ही बना है। जमाखोरी इनके सहयोग के बिना नामुमकिन है। बिजनेस और सत्ता दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।  

यदि प्याज़ कोई मूलभूत सामग्रियों (एस्सेन्शिअल कमॉडीटी) में शुमार हो तो ये हाय-तौबा समझ आती है। प्याज के बिन कौन भूखा मरा जा रहा है। हमारे यहाँ जनसँख्या विस्फोट ने एक वृहद् रूप ले लिया है। सबको सिर्फ और सिर्फ अपनी पड़ी है, देश का होना न होना गौण हो गया है। इसलिए हम हर उस काम को करने को तत्पर रहते हैं जिससे हमें थोडा भी फायदा होने वाला हो। लाइन में लग कर मूवी का टिकट लेना भी हमें गवारा नहीं। सरकार द्वारा प्रदत्त सब्सिडाइज्ड गैस से अपनी कार चलाना हमारे स्मार्ट होने की निशानी है। पैदा होने से लेकर मरने तक हमें कितनी ही सरकारी सुविधाओं के लिए उन लोगों को घूस देना पड़ता है जिनकी नियुक्ति ही जनता को सेवा देने के लिए हुयी है। और वो भी भीख नहीं, अधिकार की तरह। यहाँ तो बिना घूस के न जन्म मिलता है न मृत्यु। राजा का कर्तव्य अगर सेवा करना हो, और वो ये मानता भी हो, तो शायद उससे बड़ा नौकर खोजना मुश्किल है। पर सरकारी अमले तो बनाये ही इसलिए गए हैं कि वो जनता जनार्दन पर राज कर सकें। अगर हम सब, पूरा देश, घूस देने से मना कर दें तो कितने ही विभाग हमारे घर आयेंगे कहेंगे भैया सुविधाएं ले लो। लाइसेंस बनवालो, टैक्स दे दो, रजिस्ट्री करवा लो, मकान खरीद लो नहीं तो हमारा टारगेट नहीं मीट होगा। पर अभी तो सबको अपनी-अपनी पड़ी है। तो फिर किसी और को दोष क्यों देना। जिसे मौका मिलेगा हमारा खून चूसेगा। अरे भाई जिस चीज़ की जमाखोरी शुरू हो, जिस चीज़ का दाम अनियंत्रित-असामान्य रूप बढ़ना शुरू हो जाये उसका परित्याग शुरू कर दो। जमाखोर खुद ही घबरा जायेगा। लेकिन हम तो स्टेटस के चक्कर में पड़े हैं। अगर अभी प्याज़ नहीं खाया तो लोग क्या कहेंगे। मंहगाई के दौर में भी अगर कुछ दिखावा न कर पाए तो जनाब लानत है हमारी रईसी को।

बात की बात में विषयांतर हो गया। बात थी किसान के द्वारा प्याज़ जमाखोरी से लाखों कमाए जाने की। रिपोर्टर ने जिस तरह बताया उससे लगा इस कानून के पालन करने वालों के महान देश में किसान ने कोई भयंकर अपराध कर दिया हो। जिस देश में आदर्श  बच्चों के लिए हैं और उसूल दूसरों को प्रवचन देने के लिए, वहां किसान पर ऐसा आरोप सुन कर मै स्तंभित रह गया। मुझे ध्यान आया की एक नामी ब्रेड कंपनी ने अपनी ब्रेड को लोकप्रिय बनाने के लिए मैदे में स्किम्ड मिल्क पाउडर की मिक्सिंग करवा दी। ब्रेड इतनी स्वदिष्ट थी कि मक्खन लगाये बिना आप खा सकते थे। शीघ्र की बाकि छोटी कम्पनियाँ बंद हो गयीं। एक बहुराष्ट्रीय कोल्ड ड्रिंक कंपनी ने अपना मार्केट बनाने के लिए दूसरी देसी कंपनी की खाली बोतलें ही खरीद डालीं और उन्हें तुडवा डाला। १२ रुपये किलो का गेहूं जब आटा बन कर २५ रुपये में बिकता है तो कोई हाय-तौबा नहीं मचती। जबकि अधिकांश मुनाफा तो बिचौलिए और प्रसंस्करणकर्ता ही ले जाते हैं। ज़मीन-बीज-खाद-पानी-मेहनत सब किसान की और मुनाफा बिजनेसमैन का। उत्पादन से पहले बीज, खाद, कीटनाशक सब के सब बिलियन डॉलर इंडस्ट्री बन गये हैं। और उत्पादन के बाद फ़ूड प्रोसेस्सिंग इंडस्ट्री खड़ी हो गयी है। पर लकवे-पाले-बीमारी का जोखिम किसान के सर पर। तिस पर बेचने के लिए मंडियों के चक्कर। कोई किसान को ही बिजनेस क्यों नहीं सिखाता। उत्पादन की पूरी लागत, ज़मीन का किराया, सभी फिक्स्ड और वैरियेबल कॉस्ट, पूरे परिवार की दिन-रात की मेहनत का मोल जोड़ कर किसान अपनी उपज की कीमत तय कर सकता है। जैसा कार, साबुन, तेल, कंघी, कपडा, आटा, कंप्यूटर, मोबाईल, सीमेंट, चॉकलेट, नूडल इत्यादि-इत्यादि कम्पनियाँ करतीं हैं। जिस आदमी को गप्प मारने के लिए एक पैसे प्रति सेकेण्ड की टॉक वैल्यू सस्ती लगती है, उसी आदमी को एक रोटी का दस रुपये देना खलता है। पूरा देश आजकल फ़ूड सिक्योरिटी की बात कर रहा है। किसके भरोसे? किसान के भरोसे देश को खाद्य सुरक्षा का भरोसा दिलाया जा रहा है। पर किसान सुरक्षा की कोई बात नहीं कर रहा है। इस विषय पर हम संवेदनहीनता की हद तक लापरवाह हो गए हैं। किसान को भी उन सभी तकनीकी सुख-सुविधाओं का लाभ लेने का हक है जिनका लाभ शहरी भाई उठाने की आदी हो गए हैं। पर इनके लिए चाहिए पैसा। जो किसान के पास अक्सर नहीं होता। वहीँ खाद्य सामग्री के भण्डारण और प्रसंस्करण से जुड़े उद्योग फल-फूल रहे हैं। भण्डारण और खाद्य प्रसंस्करण उद्योग का मूल उद्देश्य ही है कृषि उपज का मूल्य सम्वर्धन। कृषि उत्पादन से उत्पाद के उपभोग तक की सारी श्रंखला में सबसे फायदे का सौदा भण्डारण और प्रसंस्करण ही है। जैसा कि हम सुनते आये हैं कि अंग्रेज कच्चा माल भारत से ले जाकर उसे संवर्धित कर पूरी दुनिया में व्यापार किया करते थे। आज भी तो यही हो रहा है। अगर भारत गाँवों में बसता है तो अंग्रेजों का काम हमारे अपने भाई कर रहे हैं। कम मूल्य का कच्चा माल गाँवों से लेकर उसे मनमाने मुनाफे के साथ वापस जनता को बेचना। जब ये काम उद्योगपति करें तो ये व्यापार और जब कभी किसान इस क्षेत्र में हाथ आजमाए तो जमाखोर। ये तो वही बात हुई कि आपका प्यार प्यार और हमारा प्यार चक्कर।

आजकल हर जगह सक्सेस स्टोरी का ज़माना है। खास तौर पर कृषि के क्षेत्र में। रोज नयी-नयी किसानों के लिए ऐसी लाभप्रद तकनीकें आ रही हैं जिनसे कृषि का मुनाफा बढाया जा रहा है। समर्थन मूल्य से किसानों को जो लाभ हो रहा है वो अभूतपूर्व है। सच भी है। शायद पहले कृषि इतनी विकसित नहीं थी। किसानों का मुनाफा बढ़ा ज़रूर है पर उनके शहरी काउंटर पार्ट की तुलना में बहुत कम। पर सक्सेस स्टोरीज़ की संख्या को देखते हुए ऐसा लगता है जैसे सारा पैसा खेती में ही फटा पड़ रहा है। रोज-रोज कृषि क्षेत्र के लोग नयी-नयी सफलता की गाथा निकाले जा रहे हैं कि उनकी उन्नत तकनीक किसानों के लिए कितनी लाभदायी है। एक भाई साहब ने अख़बार में छपवाया की तरबूजे की खेती से किसान ने १६००० रुपये पैदा किये। फोटो में भरी गर्मी में सूटधारी इन अफसर साहबान को सिर्फ अंगौछा लपेटे किसान एक तरबूजा दे रहा है। एक भाई ने बताया की पुदीने की खेती अगर किसान करे तो १.५ लाख तक प्रति हेक्टेयर उत्पन्न कर सकता है बशर्ते की वो पुदीने का तेल निकल के बेचे तब। एक भाई मूंग की खेती से दो महीने में ६०००० रुपये पैदा कर लेने का दावा करते हैं। वर्तमान उत्पादन, उत्पादकता और न्यूनतम समर्थन मूल्य को देखते हुए ये गणना कुछ ज्यादा प्रतीत होती है। अगर ये सफलता की कहानी है तो शहर के इंटर फेल बाबुओं की तनख्वाहें भी किसी सफलता से कम नहीं हैं। ये काम न करने की तो तनख्वाह लेते हैं और करने की घूस। किसी भी सूरत में इनकी मासिक आमदनी किसान की वार्षिक मेहनतकश कमाई से ज्यादा है। किसानों के उत्थान के लिए ये बंधुगण जितना पैसा अपनी देश-विदेश की यात्राओं में खर्च करते हैं, ये भी एक सक्सेस स्टोरी बन सकती है। सरकारी फण्ड को बेरहमी से सिर्फ अपने प्रमोशन के लिए कन्जूम करने में इन योजनाकर्ताओं का सानी खोजना कठिन है। सरकार ने जितने भी मदों में किसानों के लिए पैसे भेजे हैं, सब के सब एक सक्सेस स्टोरी बन गए हैं। नहीं तो ग्रांट भी रुकेगी और पदोन्नति भी। आफ्टर आल सबको अपनी-अपनी पड़ी है। 

आज का युग अर्थ युग है। पैसा ही धर्म है और पैसा ही रिश्ते और समाज। कोई ये नहीं पूछ रहा की पैसा कहाँ से आ रहा है और कैसे आ रहा है। चाहो तो गुटका बेच कर करोड़ों का साम्राज्य खड़ा कर लो या अफीम बेच कर। घूस से कमाओ या ज़मीर बेच कर। पैसे की अपनी भाषा है।ऐसे में किसान से देश के लिए चैरिटी की उम्मीद का कोई मतलब नहीं है। कृषि क्षेत्र में सक्सेस स्टोरीज़ का जिस तरह से प्रचलन बढ़ा है उसे देख के लगता है विज्ञानं के अन्य क्षेत्र ढक्कन हो गए हैं। सबसे ज्यादा मुनाफा कृषि में ही हो रहा है। ये बात अलग है कि हम किसी भी किसान आज उद्योगपति के रूप में नहीं जानते। ऐसे में ये खबर कि प्याज़ की जमाखोरी से किसान ने लाखों कमाए ये मेरे विचार से एक वास्तविक सक्सेस स्टोरी है। गौर कीजिये लाखों। देश के सबसे बड़े उद्योग कृषि,  जो सौ करोड़ को खाना दे सकता है और रोज़गार भी, को हमने अपाहिज सा बना रक्खा है। सरकार के सहयोग से रेंगने वाला उद्यम। जबकि उसी से सम्बद्ध बीज-खाद-केमिकल्स-प्रसंस्करण उद्योग बन गए। यदि भारत का किसान फसल उत्पादन के साथ-साथ भण्डारण और प्रसंस्करण का कार्य करने लगेगा, कृषि भी एक संपूर्ण उद्योग का रूप ले लेगी। अभी कृषक के उत्पादन का मूल्य सरकार नियत करती है। जबकि अन्य किसी उद्योग में ऐसा नियंत्रण नहीं है। फिक्स्ड, वैरिएबल और विज्ञापन को जोड़ कर मुनाफा तय किया जाता है और कम्पनियाँ ही अपने उत्पाद का मूल्य निर्धारण करतीं हैं। यहाँ तक की तेंदुलकर और कैटरिना कैफ का पैसा भी ग्राहकों से वसूला जाता है। जिस दिन भारतीय कृषक के हाथ में भण्डारण और प्रसंस्करण की जादुई छड़ी आ जाएगी उस दिन उसकी ही नहीं पूरी ग्रामीण अर्थव्यवस्था की दशा और देश की दिशा दोनों बदल जाएगी। खाद्य सुरक्षा को कृषक सुरक्षा से जोड़ कर देखा जाना चाहिए। खेती की सफलता गाथाएं जब अम्बानीज़, टाटाज़, बिरलाज़ के साथ बिजनेस टुडे, फ़ोर्ब्स इंडिया, इकनोमिक टाइम्स, बिजनेस स्टैण्डर्ड में स्थान पाएंगी तभी कृषि को एक उद्योग का दर्ज़ा मिल पायेगा। संपन्न किसान ही समृद्ध भारत नीवँ है। 

हे ब्रम्हा! हे विष्णु! हे महेश! वाणभट्ट आप सबका आह्वाहन करता है। ये मनोकामना पूरी कीजिये। सवा रुपये का प्रसाद…  

तीनो देव एक साथ बोल उठे "वत्स यहाँ भी…घूस…सुधर जाओ"  

- वाणभट्ट  

बुधवार, 11 सितंबर 2013

रेंड़ के पेंड़

रेंड़ के पेंड़

सावन के अंधे को हर तरफ हरा ही हरा दिखाई देता है। ये कहावत आजकल चरितार्थ होती दिख रही है। सावन ख़त्म हुए कई दिन हो गए हैं पर हरियाली का सर्वत्र वास है। घर के सामने बने गंगा बैराज के मैदान में पूरा का पूरा एक नेचुरल रेन फ़ॉरेस्ट ही तैयार हो गया है। वैसे तो यहाँ से मोहल्ले में पीने के पानी की आपूर्ति की जाती है। पर जब से वर्ल्ड बैंक ने इस परियोजना से अपना हाथ खींच लिया है, तब से जल विभाग के लिए इस प्रांगण की रख-रखाव कर पाना भी संभव नहीं रह गया है। भरी आबादी के बीचोंबीच जंगल का होना, सोशल फोरेस्ट्री का एक नायब नमूना है। निगम के महानुभावों ने शायद इस सन्दर्भ में सोचा नहीं होगा, नहीं तो एक सक्सेस स्टोरी तो छाप ही लेते। वो बेचारे तो बस बजट को हिल्ले लगाने की फिराक में लगे रहते हैं। उनकी इस प्रक्रिया में किसी का भला हो जाये तो हो जाये। 

छापाखाना के निर्वचनीय सुख का आनंद वो ही अनुभव कर सकता है जो करता कम है और छापता ज्यादा। दरअसल इस मामले में निगम का नजरिया वैज्ञानिक नहीं है। और उनके यहाँ प्रमोशन में छापने का कोई नम्बर भी नहीं है। थोडा प्रचार-प्रसार कर दें तो ये एक आइडियल मॉडल बन सकता है। हर मोहल्ले में एक मैदान खाली छोड़ दीजिये उसमें सारे पेड़-पौधे, खर-पतवार जो भी निकल आये उगने दीजिये। दो-चार साल में एक फारेस्ट तैयार हो जायेगा। देश में फ़ॉरेस्ट का रकबा भी बढ़ जायेगा, वो भी बिना कुछ किये। हर्र भी नहीं, फिटकरी भी नहीं, और रंग चोखा। शहरवासियों को शुद्ध हवा के लिए ज्यादा मशक्कत भी नहीं करनी पड़ेगी। खुले परिवेश में दिशा-मैदान जाने और सॉलिड वेस्ट के निस्तारण में जो सुविधा होगी वो एडिशनल बेनिफिट है।  

हाँ तो आजकल हर तरफ हरियाली ही हरियाली है। ग्रह-दशा अनुरूप इधर लखनऊ के चक्कर बढ़ गए हैं। कानपुर सेंट्रल से लेकर चारबाग़ तक हर जगह पूरी प्रकृति हरियाली की चादर ओढ़े हुए है। ऐसी ताबड़तोड़ हरियाली है जिस पर अब तक ध्यान देने का अवसर नहीं मिला था। ना-ना प्रकार की वनस्पतियों ने जैसे धरा का अधिग्रहण कर लिया हो। एक-एक चप्पे, एक-एक कोने पर प्रकृति की छटा रोम-रोम को मस्त कर देती है। भाँति-भाँति के खर-पतवार अपने पूरे शबाब पर हैं। सभी खर-पतवारों में सबसे खूबसूरत और आकर्षित करने वाला कोई पेंड़ है तो वो हैं रेंड़ के पेंड़। गर्व से उन्मत्त इसके लहलहाते-झूमते  बड़े-बड़े पत्ते बरबस आपको आकृष्ट कर लेंगे बशर्ते आप इनकी ओर नज़र डाल सकें। इन्हें देख कर जीवन की अदम्य इच्छाशक्ति परिलक्षित होती है। ये स्लम डॉग टाइप के पौधे हैं जिनके जीने-मरने से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। पर ये इनकी जिजीविषा है कि बिना किसी पालन-पोषण के ये न सिर्फ पैदा होते हैं बल्कि फलते-फूलते भी हैं। इनके बीजों का डिसपर्शअन भी इतना सुव्यवस्थित है कि कानपुर से लखनऊ के बीच रेंड से वंचित स्थान खोजना कदाचित ही संभव हो।    

इस तरह की अनचाही हरियाली को विशेषज्ञों ने वीड्स यानि खर-पतवार की संज्ञा दे रक्खी है। मान ना मान मै तेरा मेहमान। एक तरफ पूरा विश्व अपनी और अपने पशुओं की खाद्य समस्या से जूझ रहा है। उपजाऊ ज़मीन का रकबा प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष घटता जा रहा है। और ये अवांछित वीड्स धरती पर ऐसे फैलते हैं जैसे कभी साहिर साहब ने फ़रमाया था :


चीन-ओ-अरब हमारा, हिन्दोस्तान हमारा 
रहने को घर नहीं है सारा जहाँ हमारा

इनका बस चले तो कोई भी फसल पनप ही न सके। कृषि का अधिकतम श्रम इन खर-पतवारों को नियंत्रित करने में लग जाता है। खाद और पानी मिल जाये तो ये मुख्य फसल के ऊपर हावी होने का कोई मौका नहीं छोड़ते। इनकी जिजीविषा और परजीवी प्रवृत्ति इतनी सशक्त है कि ये फसलों का पोषण सोख लेते हैं। खेतों में इनका नियंत्रण एक वृहद् समस्या बन गया है।  रक्तबीज की तरह ये फैलते हैं और भस्मासुर की तरह सब नष्ट करने को आतुर। एक तरफ जहाँ फसलों का उत्पादन बढ़ाने के लिए अरबों-खरबों खर्च किये जा रहे हैं, वहां वीड्स का अनियंत्रित स्वतः विकास और प्रसार सारे फसल सुधार शोध को चुनौती देते हुए प्रतीत होते हैं। अधिक उत्पादन वाली उन्नत प्रजातियों पर कितने संसाधन खर्च कर दिए गए और ये राशि दिन प्रति दिन बढ़ती ही जा रही है। पर वीड्स का उत्पादन, उत्पादकता और क्षेत्रफल बिना किसी शोध के दिन पर दिन उन्नत होता चला जा रहा है। एक तरफ ज्ञानियों-विज्ञानियों का विश्वव्यापी समूह और दूसरी तरफ निपट अनपढ़, गंवार, जंगली और जाहिल वीड्स। संभवत: इसे ही कहते हैं सेल्फ इम्प्रूवमेंट या स्वतः सुधार। और सेल्फ इम्प्रूवमेंट सदैव बाहर से थोपे सुधार से ज्यादा प्रभावी और शक्तिशाली होता है। वीड्स इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। 

एक फसल सुधारक मित्र का ध्यान मैंने इस ओर आकृष्ट करना चाहा। यार तुम लोग इतने रिसोर्सेज वैरायटी डेवलपमेंट में लगा देते हो और ये वीड्स देखो दिन पर दिन अपने आप इम्प्रूव हुए जा रहे हैं, बिना संसाधन के। भाई साहब संजीदा हो गए। बोले सदैव से प्रकृति में अच्छे-बुरे की जंग चल रही है। हम उत्पादन और उत्पादकता बढ़ने में लगे हैं। संसाधन कम हैं और ये खर-पतवार मुख्य फसलों का पोषण ले लेते हैं। ये ना तो पशुओं के काम आते हैं ना आदमी के। अच्छाई और बुराई की होड़ में अक्सर बुराई आगे निकल जाती है। बुराई को अगर छूट दे दो तो वो भलाई पर हावी हो जाती है। खर-पतवार अनचाहे उग आते हैं जबकि फसल को रोपना पड़ता है, संरक्षित और संवर्धित करना पड़ता है। तब जा कर हम आदमी और पशुओं का भरण-पोषण कर पाते हैं। उनकी बात में दम था और दर्द भी। उनकी बातें वनस्पति जगत के लिए ही नहीं प्राणी जगत के लिए भी सत्य जान पड़ीं। वर्तमान सामाजिक, राजनीतिक और प्रशासनिक परिपेक्ष्य में ये व्यवस्था मानव जाति  के लिए तो शत-प्रतिशत सही लगी। हर युग में द्वैत रहा है। बुराई के बिना अच्छाई की कद्र भी तो नहीं है।    

पर मै ये लेख तो रेंड़ के पेंड़ के फेवर में लिख रहा हूँ। आदमी जब हरियाली के क्षेत्र को दिन पर दिन कम करता जा रहा है। जंगल कटते जा रहे हैं। ग्रीन कवर घटता जा रहा है। आदमी और जानवरों की संख्या पृथ्वी पर बढ़ती ही जा रही है। सबको अपनी-अपनी ही पड़ी है। तो प्रकृति बेचारी क्या करे। हरियाली भी ज़रूरी है पर्यावरण संरक्षण के लिए। आदमी हो या जानवर, सब प्राकृतिक संसाधनों के दोहन में लगे हैं। ये प्रकृति का सेल्फ-डिफेन्स मैकेनिज्म है कि ऐसे पेड़-पौधे पैदा करो जिसे कोई छू भी न सके। कुछ तो हवा बदलेगी। कुछ तो वातावरण साफ़ होगा। 

गर्व से लहलहाते, हरे-भरे और खूबसूरत  रेंड़ के पेंड़ों के प्रति मेरे मन में अनायास एक आभार का भाव तैर गया। मन में एक भाव ये भी आया की काश गेंहूँ और धान भी वीड्स की तरह बिना संसाधन के सर्वत्र फ़ैल जाते, फूलते-फलते तो खाद्यान्न समस्या कम हो जाती, शायद आदमी की भूख भी।  


अब हवाएं ही करेंगी रौशनी का फैसला 
जिस दिये में जान होगी वो दिया रह जायेगा 
(मेरा नहीं है, बस यूँ ही चेप दिया) 



सोशल फॉरेस्ट्री का नायाब नमूना


रेंड़ के पेंड़

- वाणभट्ट  


सोमवार, 2 सितंबर 2013

सूखे फूल

सूखे फूल 

रोज सुबह शुक्ल जी के मिलने का स्थान और समय नियत है। केशव वाटिका में जहाँ 'फूल तोडना सख्त मना है' का बोर्ड लगा है वहीँ प्रातः शुक्ल जी पूर्ण तन्मयता के साथ फूल तोड़ते मिल जायेंगे। कहीं कोई और फूल तोड़ न ले जाये इसलिए उन के लिए अलसुबह बाकि पुष्प प्रेमियों के आने से पहले वाटिका पहुंचना नितांत आवश्यक है। जब तक मै  पहुँचता हूँ उनकी दोनों जेबें फुल हो चुकी होतीं हैं। वाटिका के चौकीदारों ने उन्हें समझाने का बहुत प्रयास किया पर सठियाने का भी कोई लाभ होता है तो वो ये है कि आप को कोई कुछ समझा नहीं सकता।  सफ़ेद बालों और उम्र का लिहाज़ अभी भी बुजुर्गों को हमारे देश में नियम-कानून से ऊपर रखता है। और फूल तोडना कौन सा जघन्य अपराध की श्रेणी में आता है। और वाटिका के चौकीदार भी कौन से पुलिस वाले थे। और होते भी तो क्या कुछ ले-दे के मान न जाते।  पर अगर ले-दे के ही शुक्ल जी को फूल हासिल करने होते तो मोहल्ले में कई मालिनें ये काम कर रहीं हैं। सिर्फ ३०-४० रुपये में महीने भर फूलों की आपूर्ति।

शुक्ल जी सरीखे अन्य लोग भी देर-सबेर वाटिका पहुँच ही जाते और फूल तोड़ने की प्रक्रिया में यथाशक्ति अपना-अपना योगदान देने में कोई कोर-कसर ना  छोड़ते।  इस कारण वाटिका सिर्फ नाम की वाटिका रह गयी थी। खिले हुए फूलों को देखना तो केवल इन पुष्प तोड़कों  और उनकी जेबों के नसीब तक ही सीमित रह गया है। मैंने भी कई बार अपनी मित्रता का हवाला देते हुए शुक्ल जी से निवेदन किया कि प्रभु इतने सारे फूल भी इतनी खुशबु नहीं दे पाते जितनी एक अगरबत्ती दे देती है। पर उनका कहना था कि भगवान को बासी सुगंध कैसे अर्पित की जा सकती है और वो भी तब जब वाटिका में फूल सहज उपलब्ध हैं।

आजकल मिडिल क्लास तबके में एक बयार आई है।  सब अपने एम आई जी मकानों की एक इंच जगह भी खाली नहीं छोड़ते। पूरा का पूरा मकान पक्की फर्श से ढँक जाता है। कुछ तो पूरे फर्श के ऊपर पूरी छत भी तान देते हैं। पूरे घर में मार्बल की फ्लोरिंग करने के बाद गेट तक कलेजी लगाने का प्रचलन बढ़ गया है। कच्ची ज़मीन रखने से मार्बल के गन्दा होने की प्रोबेबिलिटी बढ़ जाती है। हाँ, इस प्रजाति के लोगों में कुछ पर्यावरण प्रेमी भी हैं। वो सड़क के फुटपाथ को घेर कर बगीचा टाइप की चीज़ बना लेते हैं। कुछ वृक्षारोपण कर अपने को प्रकृति और सौदर्य प्रेमी की संज्ञा देने से नहीं चूकते। सरकार के बस का तो फुटपाथ मेंटेन करना है नहीं लिहाज़ा इस काम को समाज सेवा का दर्ज़ा भी दिया जा सकता है। ये बात अलग है की सडकों का पानी नालियों तक न पहुँच पाए तो जलभराव की स्थिति बन जाती है। और तारकोल से बनी सड़कें पानी का रुकना बर्दाश्त नहीं कर पातीं इसलिए दस साल की जगह दो साल में ही जवाब दे देतीं हैं।

शुक्ल जी ने भी सरकारी जमीं पर अतिक्रमण कर एक लघु वाटिका बना ली थी। पर उन्हें शिकायत थी कि वो इतनी मेहनत से पौधे लगाते हैं, उनकी देख-भाल करते पर जब फूलों का मौसम आता तो ज़ालिम ज़माने वाले एक फूल भी उनके लिए नहीं छोड़ते। दुखी हो कर उन्होंने बिना फूलों वाले पेड़-पौधे लगा लिए और अब फूलों के लिए उनको केशव वाटिका पर निर्भर रहना पड़ता। जब आप किसी भी आदमी के गलत से गलत कृत्यों के जेनेसिस में जायें तो लगता है वो आदमी जो भी कर रहा है वह शत-प्रतिशत सही है। किसी की बहन की कोई नाक काट ले तो उसका रावन बन जाना संभव है। किसी के बाप को राज-पाठ सिर्फ इसलिए ना मिले की वो नेत्रहीन है तो उसे दुर्योधन होने का पूरा अधिकार है। चूँकि शुक्ल जी मेरे मित्र हैं और मै उनकी पुष्प-व्यथा से वाकिफ भी हूँ इसलिए उनके फूल तोड़ने को ले कर मै ज्यादा क्रिटिकल नहीं हूँ, यद्यपि मै फूलों को शाखाओं पर देखना ही अधिक पसंद करता हूँ।  

उस शाम शुक्ल जी अपनी स्कूटी पर एक भारी-भरकम पौलीथीन बैग लिए कहीं जा रहे थे जब मै  उनसे टकराया।  हेलमेट पहन रक्खी थी उन्होंने जिससे ये जाहिर था कि वो कहीं सुदूर क्षेत्र के भ्रमण के इरादे से निकले हैं। टोकना तो हिंदुस्तानी हितैषियों का परम कर्तव्य है सो मैंने पूछ ही लिए "बन्धु कहाँ प्रस्थान का विचार है"।  "आ जाओ वर्मा जी तुम्हें गंगा जी तक घुमा लायें" ऐसा कह कर उन्होंने स्कूटी रोक ली। मै तो सैर करने के इरादे से निकला ही था इसलिए इस प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लिया। कुछ पलों में मै उनके पीछे वाली सीट पर विद्यमान था और लगभग एक घंटे की यात्रा कर के जाजमऊ पुल के ऊपर। रास्ते में शुक्ल जी ने बताया की घर में बहुत सूखे फूल इकट्ठे हो गए थे चूँकि भगवान को चढ़ाये फूल हैं इसलिए उन्हें इधर-उधर तो फेंक नहीं सकते। इसलिए यहाँ तक आना हुआ इसी बहाने गंगा मैया के दर्शन भी हो जायेंगे। एक पंथ दो काज। 

गंगा पुल पर शाम की सोंधी हवा के आनंद में मै खो सा गया था जब छपाक की आवाज़ हुई। लगा किसी ने बोरे में भर के लाश को फेंक दिया हो पानी में। मैंने चौंक के नीचे देखा तो शुक्ल जी के द्वारा लाया बैग पानी में डूबता-उतराता बहा जा रहा था। बगल में शुक्ल जी असीम श्रद्धा भाव से हाथ जोड़े गंगा मैया को प्रणाम कर रहे थे। 

लौटते समय रास्ते भर मेरा कुछ भी बोलने का मन नहीं हुआ। बहुत थकान लग रही थी। ऐसा लग रहा था मानो किसी सम्बन्धी की शव-यात्रा में कन्धा दे कर लौट रहा हूँ।   

वो मेरा दोस्त है सारे जहाँ को है मालूम 
दगा करे वो किसी से तो शर्म आये मुझे   

- वाणभट्ट            

शनिवार, 10 अगस्त 2013

धर्म

धर्म


इधर जिंदगी ने कुछ फ़िलोसोफ़िकल टर्न लिया। जब तक आदमी जीत रहा होता है तो सिकंदर मोड में होता है और हारता है तो स्पिरिचुअल मोड में चला जाता है। वैसे हमारे महापुरुषों ने आदमी को भली-भांति समझ कर ही ये बात कही होगी - हारे को हरि नाम। फिर ज़िन्दगी की खासियत है कि आदमी समय के साथ जीत को भी भूल जाता है और हार को भी। हर समय नयी चुनौतियाँ सामने होतीं हैं और उन पर विजय के लिए आदमी सदैव संघर्षरत।



एक कहानी है। किसी विश्व विजेता को ये पता चला कि जितने लोगों ने विश्व विजय की उन्हें अपना नाम सुमेरु पर्वत पर दर्ज़ करना होता है। इस गरज़ से वो सुमेरु पर्वत तक भी पहुँच गए। उसे लगा कि विश्वविजय के बाद अगर नाम न लिखा तो सारी कवायद व्यर्थ चली जाएगी। वहां गेट पर एक दरबान बैठा ऊँघ रहा था। उसने पूछा कि क्या ये ही सुमेरु पर्वत है. दरबान ने कहा हाँ। फिर उसने बताया कि उसने पूरे विश्व पर विजय पा ली है और सुमेरु पर्वत पर अपना नाम लिखना चाहता है। दरबान जरा भी इम्प्रेस नहीं हुआ। बैठे-बैठे ही उसने चॉक का एक टुकड़ा उठाया और बोला नाम लिखने आये हो तो ये लो चॉक और पहाड़ी पर अपना नाम लिख आओ। विश्वविजेता गेट से अन्दर गया और थोड़ी देर में हैरान-परेशान लौट कर आया कि पूरे पर्वत पर तो कोई जगह ही नहीं है जहाँ वो अपना नाम लिख सके। दरबान ने कहा भाई कोई भी नाम मिटा दे और अपना लिख ले। कहने का तात्पर्य ये है कि धरती कभी वीरों से खाली नहीं हुयी है और हर सौ साल में इतने महान लोग पैदा हो जाते हैं कि हर किसी को याद रखना संभव नहीं है। हाँ जिन्होंने दिलों पर राज किया शायद वो अमर हो गए।



जीत शायद आदमी को और व्यस्त कर देती है अगली फतह के लिए और सोचने का मौका नहीं देती। पर हार आपको चिंतन करने को विवश कर देती है कहाँ हम गलत थे और कहाँ सही। जीतने  वाला पहले ही समरथ को नहीं दोष गुसाईं वाले फोरमैट में चला जाता है। इलाहाबाद में सिविल सेवा के सफल और असफल परीक्षार्थियों से मुलाकात हो ही जाती थी। उनमें सिर्फ इतना अंतर होता था सफल वाला कहता था मेरी मेहनत का नतीजा है और असफल कहता भगवान/भाग्य ने साथ नहीं दिया।



कुछ पिटने-पिटाने के बाद मुझे भी धर्म की शरण में जाना ही था। कमरे को कुटिया बना दिया और खुद को वानप्रस्थी। किसी ने बताया हनुमान चालीसा पढो तो किसी ने दुर्गा चालीसा का पाठ रिकमेन्ड किया। मेरी दादी नित्यप्रति सुन्दरकाण्ड पढ़ा या पढ़वाया करतीं थीं। वहीँ तक जब हनुमान जी सीता माता की गोद में भगवान राम की मुद्रिका डाल देते हैं। उसके बाद उन्हें भरोसा था कि राम अब उन्हें आज़ाद करा ही लेंगे। सबसे कठिन काम सीता जी को खोजने का था। मै बचपन से अपनी दादी के लिए सस्वर सुन्दरकाण्ड का पाठ किया करता था।  इसलिए मैंने सुन्दरकाण्ड पर भरोसा किया। हाँ वो घंटी लेकर आरती भी गातीं थी तो मुझे वो भी एक सहज पूजन विधि लगी। मुझे लगने लगा कि अब मै धार्मिक हो गया हूँ। फर्स्ट स्टेज के झटके से उबरने के लिए ये विधि बहुत ही कारगर रही।



फिर कुछ महापुरुषों को पढ़ने और समझने का मौका मिला। उन्हें चिंतन-मनन करने का सुखद अनुभव भी हुआ। धर्म की परिभाषाएं बनीं भी और टूटीं भी। अपनी आस्था पर भी प्रश्न उठे। और धर्म का एक नया स्वरुप दिखाई दिया। ये जितना सीधा और सरल शब्द है उसकी व्याख्या ज्ञानियों ने कठिन और दुरूह कर दी है। आम आदमी को पूजा पद्यति पकड़ा दी है और सार से दूर कर दिया है। बीच में मिडिलमेन और बैठ गए हैं भगवान के प्रतिनिधि बन कर। पर ये भी ज़रूरी हैं फर्स्ट स्टेज शॉक से बचने के लिए। यात्रा का पहला पड़ाव भी कह सकते हैं इसे। रोजमर्रा के काम से फुर्सत मिले तो धर्म के बारे में सोचा जाये तब तक ये पूजन पद्यति ही श्रेष्ठ है।



धर्म क्या है हम सब जानते हैं। अधर्म करने के लिए हमें सोचना पड़ता है धर्म के लिए नहीं। सत्य, सत्य होता है असत्य के लिए दिमाग लगाना पड़ता है। गाँधी या संत वो ही हो सकता है जो दिमाग का उपयोग समाज की भलाई के लिए करे न कि अपनी। पर धरती समझदार लोगों से अटी पड़ी है (मेरे हिसाब से जो देश जितना भ्रष्ट है उतने ज्यादा समझदार वहां वास करते हैं)। समझदार दुनिया के हिसाब से चलते हैं। अपनी समझ पर उन्हें ऐतबार नहीं होता शायद। वो एक संगठित माफिया गिरोह की तरह देश-समाज को चूसने में लगे हैं। जिस देश में हर आदमी धार्मिक हो वहां तो स्वर्ग होना ही चाहिए पर हम अभी भी मूलभूत समस्याओं से ऊपर नहीं उठ सके हैं।  हर आदमी सिर्फ इसलिए पूजा कर रहा है कि बाकि सब पूजा कर रहे हैं। अपने बचपन में मैंने इतने तीज-त्यौहार, व्रत-उपवास नहीं देखे जितने आज प्रचलित हैं। भ्रष्टाचार और नारी असम्मान की जितनी घटनाएं आज उजागर हो रहीं हैं ये हमारी अधार्मिक छवि को प्रदर्शित करते हैं। ऐसा सिर्फ इसलिए हो रहा है की हम जिस तरह धर्म की नक़ल करते हैं उसी तरह भ्रष्टाचार की भी। चूँकि सब कर रहे हैं इसलिए मुझे भी करना है। सब झूठ के सहारे आगे बढ़ रहे हैं तो झूठ बोलने से कैसा परहेज। सत्य-अहिंसा बच्चों के पाठ्यक्रम में ज़रूर हैं पर जीवन जीने की कला सिखाते समय बच्चे को हर कोई दुनियादारी सिखाना चाहता है ताकि वो इस भवसागर के सभी इम्तहान पास कर सके। ये बात अलग है कि दुनियादारी का पहला ट्रायल बच्चा उन्हीं पर करता है जो उसे ये सारी तकनीक सिखाते हैं। कितना बड़ा उलटफेर है जिसे हम धर्म मानते हैं उस पर चलने को तैयार नहीं हैं। इसलिए घंटी बजा कर, उपवास रख कर खुद को धार्मिक मान लेते हैं।



आदमी हमेशा से शांति की खोज में लगा रहा है। और ये उम्मीद उससे ही की जा सकती है जिसका पेट भरा हो।उसके पहले सारी कवायद पेट के लिए है। जिसका अधर्म सिर्फ पेट के लिए हो उसे कुछ हद तक जायज़ माना जा सकता है। पर जो दूसरे की रोटी पर नज़र गडाए बैठा हो उसकी सारी तपश्चर्या व्यर्थ है। धर्म का उद्भव बुद्ध से हो सकता है, महावीर से भी। उनके पेट भरे थे सो चिंतन कर सके। पर भरे पेटों की भूख ज्यादा हो तो उसका क्या इलाज हो सकता है। आदमी जब-जब परेशान हुआ कुछ महापुरुषों ने उनका मार्गदर्शन किया। वो एक मशाल की तरह जिए। जो उनके संपर्क में आया वो भी इन्लाईटेन हो गया। हमने उन्हें अवतार बना दिया। समय के साथ जब मशाल बुझ गयी तो हम अपने-अपने मशाल के डंडे को बड़ा बताने लग गए। जब कि जरुरत थी हम अपनी मशाल भी उस ज्योति से जला लेते। पर तब हमें खुद बुद्ध बनाना पड़ता। बुद्ध या ईसा को फोल्लो करना आसन है खुद बुद्ध या ईसा बनना कठिन। हमने आसन विकल्प चुना। घंटी बजाना आसान था तो घंटी बजा ली। सत्य और धर्म पकड़ना मुश्किल था तो उसे महापुरुषों के लिए छोड़ दिया। इससे हमें सहारा मिल गया कि हम महापुरुष को फोल्लो तो कर रहे हैं पर उन सा बनना अपने बस की बात नहीं है। अपन तो आम आदमी हैं। अन्ना के आन्दोलन में सबसे विशिष्ट बात थी हर टोपी पर लिखा था मै हूँ अन्ना। एक बुद्ध से कुछ नहीं होगा सबको बुद्ध बनना  होगा, तभी बात बनेगी।   



धर्म सिर्फ धर्म है। उसके अलावा जो कुछ भी है, वो अधर्म है। चाहे ये किसी भाषा में हो या किसी मज़हब में या किसी भी देश में। ये भी देखने को मिलता है जिन देशों में नियम और कानून का राज्य है, वहां धर्म भी ज्यादा सशक्त है, वहां धर्म की आवश्यकता भी कम है। जब हम धर्म की स्थापना नहीं कर पाए तभी नियम-कानून की आवश्यकता पड़ी। दोनों मानवता की भलाई के लिए हैं। धर्म और कानून की नज़र में हर इंसान सामान है। पहले लोग भगवान की सर्वव्यापकता पर भरोसा कर धार्मिक थे कि भगवान सब जगह सब कुछ देख रहा है। तकनीक के युग में ये काम सी सी टी वी  कैमरे ही कर सकते हैं। ऐसे तथाकथित धर्म से अब डर लगता है जो मानवता के खिलाफ हो।



पिछले कुछ दिनों से मेरी पूजा बदल गयी है। गुलज़ार की लिखी ये प्रार्थना हम अपने स्कूलों में गाया करते थे। तब धर्म और अधर्म से अन्जान थे, तब हम भी कुछ-कुछ भगवान थे। वो प्रार्थना शेअर कर रहा हूँ -




हर ज़र्रा चमकता है अनवार-ए-इलाही से
हर सांस ये कहती है हम हैं तो ख़ुदा भी है 

-वाणभट्ट           

विशेष : इस लेख में व्यक्त विचार सिर्फ मेरे नहीं हैं. विभिन्न किताबों में जिन बातों ने मुझे धर्म को समझने में सहायता की, जो बातें अच्छी लगीं  उन्हें साझा करने का प्रयास मात्र है ये लेख. किसी के विचारों को ठेस पहुँचाना उद्देश्य नहीं है यदि अनजाने में ऐसा होता है तो मै उसका क्षमाप्रार्थी हूँ.   

रविवार, 21 जुलाई 2013

सदाशयता

सदाशयता 


मंदिरों में इन दिनों भीड़ ज्यादा होने लगी है। सब लोग धार्मिक हुए जा रहे है। ऐसा लगता तो है। पर जो होता है वो लगता नहीं और जो लगता है वो होता नहीं। जो पूजा मुझे घर के कोने में मिल जाती है वो मै बद्रीनाथ और केदारनाथ में नहीं पा सका। मै अपने आपको धार्मिक मानता तो नहीं हूँ पर धर्म के साथ ज़रूर रहने का प्रयास करता हूँ। इस लिए भगवत प्राप्ति का कोई भी सुअवसर हाथ से जाने नहीं देता। 

सो जब गुप्ता जी ने मंदिर चलने को कहा तो मै मना नहीं कर सका। भीड़-भाड़ और शोर-शराबे में मंदिर तो पहुँच जाता हूँ पर भगवान् गुम हो जाते हैं। उस दिन भी बहुत भीड़ थी। शनिवार का दिन था। शनि देव को प्रसन्न करने के जितने जतन मैंने बचपन से कभी न सुने न देखे वो आजकल प्रचलित हो उठे हैं। मंदिरों में भगवानों का एडीशन हो रहा है, मार्किट वैल्यू के हिसाब से। कानपुर के मंदिर में जब काम लगा देखा तो पता चला शीघ्र ही शनि महाराज की स्थापना होने वाली है। स्थापना होते ही वहां तेल-दिए-बाती सब उपलब्ध हो गए। एक नया व्यवसाय पनपते हुए मैंने देखा।

लुधियाना में भी कुछ ऐसा ही हुआ। बारह साल बाद जब यहाँ आना हुआ तो पुराने काली मंदिर में शनिदेव की प्राण प्रतिष्ठा हो चुकी थी। ठेलों पर वो सारी चीजें मुहैया थीं जो कानपुर में मिला करतीं थीं। शनिदेव की महिमा है जहाँ-जहाँ न पहुँच जाए। क्या यूपी क्या पंजाब। सब जगह प्रभु का वास है। इसी को देख कर भारत की अनेकता में एकता वाली किम्वदंती सत्य लगने लगती है। माइंड इट...लगती है।

बहरहाल मंदिर में शनि देव की कृपा से बहुत भीड़ थी। माता रानी का जागरण भी चल रहा था। एक ही काम्प्लेक्स में सभी भगवान् होने से दर्शनार्थियों को इधर-उधर भटकने की आवश्यकता भी नहीं पड़ती। वन स्टॉप मन्दिर। राम भी हैं, कृष्ण भी, हनुमान भी और शंकर भी। मैंने भीड़ को देखते हुए वहीँ से असीम श्रद्धा के साथ सभी भगवानों का अभिवादन किया और मंदिर प्रांगण में घुसने का विचार त्याग दिया। गुप्ता जी बिना दर्शन किये लौटने को राजी न थे।   

बाहर एक बहरूपिया शनि देव के वस्त्र धारण किये। उसके सामने एक रुपयों से भरी टोकरी रक्खी हुई थी। मंदिर से जो भी निकलता उसकी टोकरी में कुछ न कुछ डाल देता। उसका आशीर्वाद पा लोग कृतज्ञ हो अपनी-अपनी दिशा में बढ़ जाते। संपन्न प्रदेश में चढ़ावा भी किसी को संपन्न बना सकता है। यूपी  में तो लोग घर से फुटकर रुपये लेकर मंदिर या कथा में जाते हैं। यहाँ दस-पांच-बीस के नोट उस टोकरी की शोभा बढ़ा रहे थे।

मै सर्वव्याप्त प्रभु की महिमा का गुणगान करने लगा। तू ही सबका सहारा है। शनि देव का भी आवाह्न किया। प्रभु धरा पर बहुत शनिचर सवार हो गए हैं। मेरे भले के लिए आपने अच्छा किया जो उन से दूर कर दिया। पर भगवन उन शनिचरों का भी तो कुछ निपटारा कीजिये जो देश-समाज को खोखला किये जा रहे हैं। 

मेरी प्रार्थना ज्यादा देर नहीं चल पायी। एक बच्चा जोर-जोर से रो रहा था। किसी जिद पर अड़ गया था। थोड़ी निगाह घुमाई तो एक गुब्बारे वाला पास ही खड़ा था और बच्चा एक बड़ा गुब्बारा खरीदने पर आमादा था। गुब्बारे वाला उसका मूल्य बीस रुपये आंक रहा था। माँ को शायद ये फिजूलखर्ची लग रही हो या उसके पर्स में सिर्फ लौटने का किराया हो। महिला बहुत संपन्न नहीं थी पर कपड़ों की चमक से उसे गरीब नहीं कहा जा सकता था।

माँ बच्चे को घसीटने के साथ-साथ डाँट  भी रही थी। तभी शनि देव बने उस व्यक्ति ने रास्ता रोक लिया और बीस का नोट माँ के हाथ पर रख दिया। बोला "बेटी, दिला क्यों नहीं देती, बच्चे का दिल नाहक दुखा रही हो।" 

किम्कर्तव्यविमूढ़ सी महिला को समझ नहीं आ रहा था कि वो पैसा ले या न ले। 

बच्चे की ज़िद जारी थी। 

- वाणभट्ट 



     

शनिवार, 8 जून 2013

भैय्ये

भैय्ये 

फ़्रांस की वो टीम न आती तो शायद राईस मिल जाने का सौभाग्य न मिलता। वो लोग हिन्दुस्तान से बासमती इम्पोर्ट करने के इरादे से आये थे। वहां एक स्पेसिफ़िक अरोमा का बासमती पसंद किया जाता है। उन्हें इम्पोर्ट कनसाइंटमेंट बहुत सी फ्रेग्रेंसेस मिला करतीं थीं। सो उन्होंने एक्सपोर्टर कंट्री में जा कर वहीँ की वैरियेबिलीटी का अनुमान लगाना उचित समझा।

बहरहाल मेरी ड्यूटी उन्हें बासमती उत्पादक क्षेत्र की राईस मिलों के दर्शन कराने की लग गयी। हम भारतीयों की खूबी है कि गोरी चमड़ी देख कर अपना ह्रदय खोल के रख देते हैं। अमूमन किसी भारतीय टीम को किसी मिल में ले जाना हो तो हमारे मिल मालिक कुछ घबरा जाते हैं। पता नहीं कौन टैक्स वाला निकल जाए या प्रदूषण वाला। आज कल तो खोजी पत्रकारिता से भी डर लगता है। कहीं धूल से अटे पड़े प्लांट में काम करते मजदूरों की फोटो ही न छाप दें। पैरों के नीचे कुचलते चावल को खुबसूरत थैलियों में पैक करते वीडियो न बना लें। थैलियों में पैक हो कर खाद्य पदार्थ का मूल्य और उपयोगिता बढ़ जाती है। 

फ़्रांस के नाम पर कई मिलों ने हमारे मिल विजिट के आग्रह को स्वीकार कर लिया। हम भी समय की पाबन्दी दिखाते हुए सुबह-सवेरे पूरे दल-बल को ले कर चल दिए। फ्रांसीसियों को हिदायत दे दी कि भैय्या फोटो-वोटो मत खींचना, हमारे बिरादर बुरा मान सकते हैं। संभ्रांत देश शायद बातों को आसानी से मान लेते हैं। वर्ना हमें तो वही करना भाता है जिसमें रिस्ट्रिक्शन हो। आज़ाद ख्याल देश है अपना। 

जब तक हम कोहली राईस मिल पहुंचे तब तक हम कई मिलें घूम चुके थे। कोहली साहब ने स्वल्पाहार की व्यवस्था भी कर रक्खी थी। फ़्रांसिसी तो बाहर खाने-पीने के नाम से ही घबरा जाते थे। हम आतिथ्य को अस्वीकार कर कोहली साहब को नाराज़ कर दें, ऐसा कोई इरादा भी नहीं था। खाते-पीते लोगों के शहर में खाना-पीना ही आतिथ्य का विशिष्ट लक्षण है। खासे डील-डौल वाले कोहली साहब खुद ही प्लांट दिखाने अपने एसी चेंबर से बाहर आ गए थे। 

ये मिल भी हमारे द्वारा विजिट की गयी बाकि मिलों जैसी ही थी। अन्दर वातावरण में तैरती धूल से हमारे फिरंगी मित्र अब तक अभ्यस्त हो चुके थे। उस गर्द-गुबार से भरे वातावरण में तत्परता से काम करते मजदूरों को देख अब उनमें कोई कौतुहल नहीं बचा था। पहले-पहल उन्हें चावल के ऊपर जूते रखने में थोड़ी परेशानी जरुर हुई पर पूरे प्लांट को देखने के लिए इस अनिवार्यता के आगे सब विवश थे। उनकी सारी हैरानी-परेशानी अब तक ख़त्म हो चुकी थी। तभी कुछ ऐसा हुआ जो वे लोग  पिछले प्लांटों में नहीं देख पाए थे।

एक बहुत ही कृशकाय आदमी ट्रक से एक कुंतल का बोरा पीठ पर रख कर सधे कदमों से उतर रहा था। एक पतला पटरा ट्रक को जमीन से जोड़े हुए था। गोदाम भी लगभग ट्रक से बीस मीटर की दूरी पर रहा होगा। फ्रांसीसियों का मुंह खुला का खुला रह गया।

कोहली साहब ने स्थिति को भांप लिया। अंग्रेजी में बोले ये यू पी के भईये गज़ब के होते हैं। देखने में बिलकुल हड्डी पर देह में इतनी ताकत होती है कि क्या बताएं। एक-एक, दो-दो कुंतल का माल इधर-उधर कर दें अपनी पीठ पर लाद के। पैसे के लिए ये यहाँ परदेश आते हैं और इतनी दिहाड़ी इन्हें अपने देश में नहीं मिलती जितनी यहाँ मिल जाती है। हम लोग देखने में भले ही कितने हट्टे-कट्टे दिखें पर मजदूरी करने के लिए ये भइये ही काम आते हैं। अब मैंने गौर किया की प्लांट के अधिकांश मजदूर बाहरी ही थे। भैये शब्द से मै दिल्ली से ही परिचित था। और ये भी मालूम था कि ये कोई आदरसूचक शब्द तो कतई नहीं लगता।

हिंदी में मैंने सिर्फ इतना कहा भाई इस मेहनत की कीमत को समझो। अपने और अपने परिवार की दो वक्त की रोटी के लिए ये इतना भारी बोझा उठा रहा है। क्या यही काम हमारे बन्दे कनाडा और अमेरिका जैसे विकसित देशों में नहीं कर रहे। वहां के लिए हम भी तो भैये ही हैं।

- वाणभट्ट             

घोषणापत्र

हर तरफ़ चुनाव का माहौल है. छोटी-छोटी मोहल्ला स्तर की पार्टियां आज अपना-अपना घोषणापत्र ऐसे बांच रहे हैं मानो केन्द्र में सरकार इनकी ही बनने व...