शनिवार, 22 दिसंबर 2012

एक राह रुक गयी तो और जुड़ गयी...

एक राह रुक गयी तो और जुड़ गयी...

ज़िन्दगी का उसूल है कि वो कुछ नहीं तो तजुर्बा ज़रूर देती है। कुछ ऐसे ही बदलाव ज़िन्दगी में रहे गत कुछ महीनों से। आदमी अपनी चाल चलता है और ग्रह-नक्षत्र अपनी। एकदम ऊपर वाले और एकदम नीचे वाले के बीच में भी कुछ मिडिल आर्डर ऊपर वाले होते हैं। जो शतरंज की बिसात बिछाते हैं और अपने वजीर-बादशाह को बचाने के लिए प्यादों को कुर्बान कर देते हैं।

मिश्र जी का हश्र तो ऐसा होना ही था। सिस्टम में हजारों दोष हैं ये सिस्टम भी जानता है। पर भाई जड़त्व भी कोई चीज़ है। अगर सिस्टम ऐसा न होता तो जो सिस्टम के जो संभ्रांत खिलाडी हैं वो संभवतः सिस्टम से बाहर होते। उनकी ही परिभाषाएं हैं कि अकेला चना भाड़ क्या फोड़ेगा। और ये बात अवाम के जेहन में कूट-कूट के घुसेड दी गयी है। एक्का-दुक्का जो ये गलतफहमी पाल लेता है कि वो देश का भला कर के ही मानेगा, तो सारा सिस्टम उसे दुरुस्त करने में लग जाता है। उसमें लग्गू-भग्गू का रोल अहम् होता है। क्योंकि शहंशाह तो सत्ता के मद में चूर होता है ये दायें और बायें ही होते है जो खबरी का काम करते हैं। और बताते हैं कि हुजूर अमुक इलाके से बगावत की बू आ रही है। उसे निपटाना ज़रूरी है नहीं तो आपकी सत्ता हिल सकती है।

और जिन राजाओं को अपने बल, बुद्धि और विवेक पर भरोसा न हो उन्हें कन्फ्यूज़ करना कोई कठिन भी नहीं है। तो मिश्र जी कहानी "सिस्टम के अन्दर : अन्ना हज़ारे" (http://vaanbhatt.blogspot.in/2011/04/blog-post_12.html) जहाँ ख़त्म हुई वहां से एक नयी कहानी शुरू हुई। मिश्र जी की ईमानदारी को चुनौती देना तो नामुमकिन था। सो उनके ऊपर ड्यूटी का उचित निर्वाह न करने, उच्च अधिकारियों से अभद्र व्यवहार, कार्य संस्कृति बिगड़ने के अनर्गल आक्षेप लगा दिए गए। एक चेतावनी मिली सो अलग से की भविष्य में ऐसी ईमानदारी और देशभक्ति वाली हरकतें कीं तो उचित अनुशासनात्मक कार्यवाही की जा सकती है। फिलहाल उन्हें स्थानांतरण से नवाज़ा जा रहा है। लेकिन ये भविष्य के संकेत मात्र हैं।

मिश्र जी का विश्वास और प्रबल हो गया है। जिस रस्ते को उन्होंने चुना है वो यक़ीनन सही है। वर्ना संस्थान और देश से गद्दारी करके जीना शायद उनका दम घोंट देता। मित्रों मिश्र जी को आपकी शुभकामनाओं और शुभेच्छा की सख्त ज़रूरत है। ईमानदारों के लिए जीने का यही एक संबल है।

सत्य पर असत्य की जीत चिर स्थाई तो नहीं दिखाई गयी है अब तक के वक्तव्यों में। और मिश्र जी का मानना है कि नीचे वालों की मंशा के पीछे भी ऊपर वाले की मंशा छिपी होती है। इस कहानी का ये अंत नहीं है। एक नयी शुरुआत कह सकते हैं। 

एक राह रुक गयी तो और जुड़ गयी। मुसाफिर का काम तो बस चलते जाना है।

- वाणभट्ट              

बुधवार, 19 दिसंबर 2012

प्रार्थना के शिल्प में !


प्रार्थना के शिल्प में !

(देवी प्रसाद मिश्र की रचना 'प्रार्थना के शिल्प में नहीं' से प्रेरित ...)

क्षमा
हे अग्नि !
हे वायु !
हे जल !
हे आकाश !
हे धरा !

निवेदन है
कि
आप कहीं दूर एकांत में जा
अपने कान भींच लें
आँखें मींच लें
कि
साक्षी के सम्मुख
असत कहने का साहस
नहीं है मुझमें
कि
विजय सदा सत्य की होती है.

- वाणभट्ट

गुरुवार, 6 दिसंबर 2012

अयोध्या


प्रिय मित्रों, एक पुरानी रचना साझा कर रहा हूँ...

अयोध्या

अयोध्या पर लिखना ज़रूरी हो जाता है.
जब देश का ये कोना मज़हब हो जाता है.

किसी ने पूछा,
प्रयाग में माघ मेला कब से लगता है
इलाहाबाद बनने के पहले या बाद में
जवाब तो नहीं, पर एक जिद ज़रूर है.
इतिहास के पहले शायद कुछ भी नहीं था.

माघ का मेला सदियों से लगता है,
जब आस्था का समुंदर हिलोरें लेता है,
संगम पर ये विहंगम दृश्य हर साल सजता है.

शायद मानव अस्तित्व के पहले से,
भाषा के भी पहले से, कुछ तो रहा होगा,
जिसने प्रयाग को प्रयाग और कोणार्क को कोणार्क बनाया होगा.

लेकिन अब समय पीछे जाने का नहीं है
ये विद्वानों का मत है.
इन्टरनेट और फेसबुक कि दुनिया में,
अमेरिका बन जाना इनके लिए
अंतिम वक्तव्य है

जडें तो अपनी हैं,
कहाँ तक काटियेगा
कब तक  झूठलाइयेगा इस बात को
कि
तमाम परतों के नीचे एक ही है यहाँ,
आदमी का वजूद.
ज़मीन के इस घेरे के अन्दर.

मज़हब को मानिये ज़रूर,
पर खुद को भी तो पहचानिए हुज़ूर.

- वाणभट्ट

शुक्रवार, 30 नवंबर 2012

देशभक्ति

देशभक्ति

देशभक्ति की ऐसी मिसालें अपने इतिहास में मिलतीं हैं कि हम खुद को महान समझने से रोक नहीं पाते। भाव कुछ ऐसा की हमारे बाप-दादा ने घी खाया था, हमारा हाँथ सूंघो। अपने अगल-बगल का हाल ये है की देशभक्त और देशभक्ति की बात परिहास का विषय बन गया है। और कुछ इच्छाधारी लोग जब चाहें इसे अपने शरीर  पर ओढ़ लें और जब चाहे आत्मा में घुसेड लें। ये नेता टाइप के जीव होते हैं और जो देश को हरवक्त ये एहसास दिलाते की वो न होते तो देश पता नहीं किस गर्त में डूब गया होता। साठ सालों में अन्य  देश कहाँ से कहाँ पहुँच गए और हम घोटालों की पर्त खोलने में लगे हैं। भला हो प्रिंट और चित्र मीडिया का, इसने इस देश में भगवान् का काम किया है। यानि ये मीडिया ही है जो सर्वत्र विद्यमान है, सब कुछ देख-सुन रहा है। कुछ भी देख सकता है, सुन सकता है।


गीता प्रेस की चोखी कहानियों में  एक कहानी पढ़ी थी, कि भगवान् सब जगह है सब कुछ देख रहा है। ऐसा एक पिता ने अपने बालक को बताया। कभी ऐसी स्थिति आई की घर में फांके की नौबत आ गयी। पिता पड़ोस के खेत में घुस कर कुछ अन्न का जुगाड़ करने लगा। अपने बच्चे को बाहर खड़ा कर दिया कि कोई देखे तो बता देना। थोड़ी देर बाद उसने पूछा बेटा कोई देख तो नहीं रहा है। बच्चे के जवाब से हम सब वाकिफ हैं। पिता ने चोरी करने का इरादा छोड़ दिया। बच्चे ने उसकी आँखे खोल दीं। सिर्फ महान बातें करने से कोई महान नहीं हो जाता। और किसी देश को महान बनाने के लिए उसके लोगों का आचरण और चरित्र की अहम् भूमिका है।


कुछ दिन पहले एक वक्ता को सुनने का सौभाग्य मिला। बात देशभक्ति की थी। 1948 में स्थापित होने के पहले इजरायल का अत्यंत संघर्षपूर्ण इतिहास रहा है। सैकड़ों साल के संघर्ष में यहूदी पूरी दुनिया में बिखर गए थे। उन्हें दरकार थी इस धरती पर जमीन के कुछ हिस्से की। कोई और देश उनकी इस इच्छा को कैसे मान लेता। लिहाज़ा उनके सामने एक दुश्वार जंग थी। वो दुनिया के विभिन्न कोनों में छिप के रहते। जब मिलते तो विदा के समय एक-दूसरे से कहते - फिर मिलेंगे दोस्त अपने इजरायल में। इस तरह पुश्तों तक उन्होंने उस इजरायल को जिंदा रक्खा जो धरती पर कहीं था ही नहीं।


एक यहूदी मित्र के बाबा की मृत्यु हो गयी थी। उसमें शरीक होने पहुंचे लोगों ने देखा कि जब अंतिम यात्रा के लिए शव को निकला जा रहा था। मित्र की दादी ने सोने की डिबिया से चांदी का पाउडर निकाल कर शव के नीचे बिछा दिया। कुछ अजीब सी रस्म थी ये किसी हिन्दुस्तानी के लिए। बाद में जब मित्र से पूछा कि दादी ने शरीर के नीचे क्या बिछाया था। सुन कर इजरायली दोस्त की आँखें नम हो गयीं। बोला हम यहूदियों की ये तमन्ना होती है कि हमारी मृत्य हमारी ज़मीं पर हो। वहां से विस्थापित होते समय हमारे पुरखे वहां की मिटटी अपने साथ ले आये थे। ये हमारे वतन की मिटटी है जो किसी इजरायली के शरीर के नीचे  डाली जाती है, मृत्य के समय।


वतन के प्रति इस प्रेम के बारे में सुन कर सभागार में उपस्थित हम भारतीयों ने खूब तालियाँ बजायीं, जोश में। बाहर निकलते समय मै सोच रहा था कि हम अपने देश से भागते हुए क्या ले जाते, अपने साथ। 


- वाणभट्ट              

मंगलवार, 30 अक्तूबर 2012

शिक्षा का उद्देश्य

शिक्षा का उद्देश्य

उन दिनों ऐसा न था। सरकारी स्कूलों में पढना फक्र की बात थी। क्योंकि अनार कम थे बीमार ज्यादा। अब की तरह हर कोई पढ नहीं सकता था। स्कूल कम थे पढ़ने वाले ज्यादा। राजकीय विद्यालय में दाखिला एक बड़ा काम था। प्रवेश परीक्षा में सीटें सीमित थीं। छठवीं में प्रवेश होता था या नवीं में। हर कक्षा में अनुमन्य सीमा 40 छात्रों की होती थी पर वास्तव में 120 बच्चे कक्षा को गुलज़ार कर रहे होते थे। छठवीं में सीटें ज्यादा होतीं थी सो दाखिला कुछ आसन होता था पर नवीं  में दाखिला मानो किसी इंजीनियरिंग कालेज का दाखिला हो। आठवीं की गर्मी की छुट्टियाँ इसी क्रम में शहीद हो गयीं थीं। पर पूरे इलाहाबाद में दूसरा कोई ऐसा कालेज न था जिसमें पढ़ने में पिता जी को लेश मात्र भी गर्व होता। चूँकि आगे पढना ज़रूरी था और सरकारी स्कूल के अलावा किसी और स्कूल में पढना या न पढना बराबर माना जाता था। इसलिए भाइयों अपनी छुट्टियाँ कुर्बान करनीं पड़ीं। 

पिता जी शायद नर्सरी में प्रवेश करने गए हों तो गए हों उसके बाद तो हर जगह खुद अपने अभिभावक बन कर हम ही गए। जी आई सी, इलाहाबाद में प्रवेश करने की ख़ुशी पहले दिन ही काफूर हो गयी जब कक्षा में सौ-सवा सौ बच्चे बैठे मिले। हम छोटे स्कूल से गए थे जहाँ प्रार्थना ग्राउंड पर सारा स्कूल एक साथ खड़ा हो जाता था। ज्यादातर टीचर हर छात्र-छात्रा को नाम से जानतीं थीं। प्रधानाचार्या से लेकर दाई तक सभी महिलाएं थीं। बसों के ड्राइवर या चपरासी ही बस पुरुष थे।  सख्त अनुशासन हमारी अध्यापिकाओं का शगल था। और ये शौक सिर्फ स्कूल या क्लास की चारदीवारियों तक सीमित नहीं था। मैनर-एटिकेट्स पर भी लेक्चर दिए जाते थे। क्या मजाल की हम स्कूल के बाहर चाट या चूरन या पांच पैसे की सेक्रिन वाली आइसक्रीम खाते दिख जायें। एक लेक्चर पक्का समझिये। एक बार कुछ लड़कों को सिर्फ इसलिए सजा मिल गयी कि उन्होंने सिर्फ हँसी के लिए पीने के पानी के लिए लिखे स्लोगन को कुछ तोड़-मरोड़ दिया था। एक छात्र ने मजाक में फ़रमाया 'पानी बहाओ, पियो मत', बाकि छात्र हँस दिए। किसी अध्यापिका ने सुन लिया। फिर तो उस ग्रुप की जो क्लास ली गयी वो वाकया आज तक जेहन में है। तभी से मुझे लगता है कि महिलाएं जितनीं कानून व्यवस्था बना के रखतीं हैं उतना पुरुषों के बस की बात नहीं है। पुरुष वैसे भी कानून तोड़ कर ज्यादा खुश होते हैं।

जी आई सी में राम राज्य था। कितने बच्चे उपस्थित हैं कितने नहीं जानने के लिए प्राचार्य महोदय के पास न कोई जिन्न था न कोई चिराग। अगर सारे बच्चे किसी दिन क्लास करने के मूड में आ भी गए तो समस्या थी की बैठें कहाँ। और किसी तरह खिड़की-दरवाज़ों पर चढ़ के बैठ भी गए तो उन्हें कंट्रोल करके विषय के बारे में पढ़ा पाना असंभव तो नहीं था, पर कठिन ज़रूर था। जैसे ही अध्यापक महोदय बोर्ड की ओर मुड़ते कक्षा जीवंत हो जाती। यहाँ सारे पुरुष अध्यापक थे और उनका अनुशासन, जैसा मैंने पहले ही कहा है, हमारी आठवीं की अध्यापिकाओं जितना नहीं था। विज्ञान और गणित की कक्षाओं में उपस्थिति फुल रहती थी। हिंदी, अंग्रेजी और वैकल्पिक विषयों में छात्र नदारद रहते। जैसे ही हिंदी या इंग्लिश के अध्यापक कक्षा में प्रवेश करते, बच्चे खिड़कियों से कूद-काद कर भाग लेते। गलती से कभी क्लास में ज्यादा बच्चे होते तो हमारे हिंदी के प्राध्यापक पूछते बेटा तुम लोग भाग नहीं पाए या वाकई पढ़ने की इच्छा जागृत हो गयी है। इस माहौल के बाद भी पढ़ने वाले पढ़ ही लेते। 120 बच्चों में कोई बोर्ड टॉप भी करता कोई आई आई टी निकलता। श्रेय निश्चय ही हमारे स्कूल  और अध्यापकों को मिलता। इसलिए हर अभिभावक, जो कान्वेंट की फ़ीस नहीं अफोर्ड कर सकता था, का सपना होता कि मेरा बच्चा जी आई सी में पढ़े।  

चूँकि मै अनुशासित स्कूल का छात्र था इसलिए कक्षा बंक करने का विचार मेरे मन में कभी नहीं आया। मै सभी विषयों की क्लास अटेंड करता। विज्ञानं और गणित के टीचर तो सिर्फ टॉपर और पढ़ाकू किस्म के छात्रों को जानते थे जो स्टाफरूम में उनसे मिल कर उनसे अपनी समस्याओं पर डिस्कशन करते थे। मेरी उपस्थिति सभी विषयों की कक्षाओं में अनिवार्य थी। टॉपर तो मै नहीं था पर सभी विषयों में मेरा दखल टॉपरों से कुछ ही कम था। हिंदी से लेकर मैथ तक सभी विषयों में मै लगभग बराबर अंक प्राप्त करता। हिंदी और अंग्रेजी के अध्यापक मेरी निष्ठा से ज्यादा प्रभावित थे और विशेष स्नेह दिया करते थे। अंग्रेजी के अध्यापक थे नूर साहब। बेहद चलते-पुर्जे। अनेक सरकारी इम्तहानों की कॉपियां जांच कर वो खासी आय अर्जित कर लिया करते। अपने घर पर 15-20 बच्चों को बुला लेते। उनकी पत्नी  मेज पर बैठ जातीं और जोर-जोर से आन्सर बोलतीं जातीं, पहले का ए, दूसरे का सी...। और चंद घंटों में सारी कापियां जँच जातीं। सिर्फ चाय-नाश्ते की ख्वाहिश में हम सभी उनके पेपर जांचने के लिए श्रमदान करने को उतावले रहते। नूर साहब की आँखों की शोभा एक ऐसा चश्मा बढाता था जिसमें से उनकी आँखें किधर देख रहीं हैं ये जान पाना कठिन था। यहाँ ये बताना ज़रूरी है की वो सनग्लास नहीं था, पावर इतना ज्यादा था कि  उसके ग्लास में गोले के अन्दर गोले और गोले के अन्दर गोले और गोले के अन्दर गोले पड़ा करते थे। कितने गोले पता नहीं। वो बच्चों से ही किताब पढवाते और एक-एक लाइन की व्याख्या करते। जो बच्चा फँस जाता वो और नूर साहब ही उस पढाई का लुफ्त उठा पाते। बाकी मटरगश्ती किया करते।  

मेरी स्थिति वही थी जैसे जेल से छूटे कैदी की। अत्यधिक अनुशासन से अनुशासनविहीनता की स्थिति। और अब मुझे इसका आनंद भी आने लगा था। नूर साहब की क्लास इसके लिए सर्वथा उपयुक्त हुआ करती थी। अमूमन क्लास टॉपर मेरे ठीक आगे बैठता था लेक्चर थियेटर की पहली पंक्ति में। हमारी अच्छी मित्रता भी थी। इसलिए किसी भी बोर से बोर क्लास में हम आनन्द के कुछ पल खोज ही लेते थे। उस दिन कुछ ऐसा ही हुआ। उसकी कुर्सी के पटरे की कील निकल गयी थी। और वो जरा भी हिलता-डुलता पटरा सरक जाता। वो दोस्त ही क्या जो फटे में टांग न अडाये। बाकि क्लासें तो ठीक-ठाक गुजर गयीं। नूर साहब की क्लास का मै इंतज़ार कर रहा था। आते ही उन्होंने 'अ प्ले बाई टैगोर' के पाठ के लिए एक लडके को चुन लिया और सराबोर हो कर उसकी पंक्तियों को एक्सप्लेन करने लगे। मैंने टॉपर के पटरे को लात से हिलाना शुरू कर दिया। उसे भी मज़ा आने लगा। उसने मेरा पैर पकड़ लिया। मै टांग छुड़ाने के प्रयास में लग गया। इस पूरे कार्यक्रम हम इतना डूब गए की देश-काल-सीमा का ज्ञान ही नहीं रहा। मास्टर जी पहले से ही टैगोर की गाथा में आकंठ डूबे हुए थे। 

मैंने पैर को जोर से खींचा, टॉपर ने उसे आगे खींचा। और ये क्या मेरा पैर पीछे आ गया। पर देखता हूँ कि मेरा जूता एक परफेक्ट प्रोजेक्टाइल लेता हुआ आगे जा रहा है। मैथ के प्राचार्य जिस प्रोजेक्टाइल को थ्योरी में समझाया था और जो मेरी समझ में कम आया था, इस दुर्घटना से क्लियर हो गया। 45 डिग्री पर गोला दागो तो सबसे दूर जाता है। नूर साहब के कान को मिस करता हुआ वो जूता मेज पर विराजमान हो गया। तन्मयता से पढ़ा रहे नूर साहब को पहले तो  कुछ समझ नहीं आया। पर मेज पर गिरी अजीबोगरीब आकृति ने उनका ध्यान खींच  ही लिया। उन्होंने झुक कर उस बला का मुआयना करना शुरू कर दिया। खुशबु से या आकार से उन्हें शीघ्र समझ आ गया की ये जूता है और उन्हें लगा होगा किसी ने उसे फ़ेंक कर मारा है। पूरी क्लास सन्नाटे में आ गयी। मै भी और टॉपर भी। कोई और होता तो गुस्से से आग-बबूला हो गया होता पर नूर साहब का सब्र काबिलेतारीफ था। उन्हें अपनी लिमिटेशन भी मालूम थी। उन्होंने क्लास की ओर निहारा। उन्हें दिखाई तो देने से रहा। इसलिए मै कुछ निश्चिन्त था। पर सभी जानते हैं कि टॉपर लोग कैसे होते हैं। वो घबरा गया। "सर ये मेरा नहीं है।" " तो फिर किसका है।" नूर साहब ने अपनी दूर-दृष्टि का उपयोग किया। "सर इसका।" नूर साहब का चेहरा गुस्से में लाल हो गया। लगा कच्चा चबा जायेंगे। टॉपर की उंगली मेरी ओर इशारा करने ही वाली थी कि मै मेज के नीचे घुस गया। नूर साहब ने मेरे पीछे वाले छात्र की पर अपनी क्रोधित निगाह डाली।  मेरा पकड़ा जाना तय था। मरता क्या न करता जूता छोड़ कर मै खिड़की की ओर भागा। जब तक नूर साहब समझ पाते मै ये-जा, वो-जा।  

अगले दिन मै उनकी क्लास में वैसे ही बैठा था जैसे की कुछ हुआ ही न हो। उन दोस्तों का मै अभी भी शुक्रगुज़ार हूँ जिन्होंने मेरा नाम अपनी जुबान से नहीं लिया। आज मै नूर साहब से उस कृत्य के लिए क्षमा की रिक्वेस्ट भी प्रेषित कर रहा हूँ। 

प्रोजेक्टाइल का जो फंडा उस दिन मिला, उसके बाद मैंने कक्षा को कभी भी अपने अध्यन से टकराने नहीं दिया।

वैसे भी शिक्षा मनुष्य की प्रवृत्ति को मुक्त करने के लिए ही तो है।

- वाणभट्ट
        

शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

बुद्ध-भाव

बुद्ध-भाव 

वो मुड़ा। उसके चेहरे पर बुद्ध-भाव था।

जामनगर स्टेशन पर मै दिल्ली जाने वाली ट्रेन का इंतज़ार कर रहा था। यू पी के स्टेशनों के विपरीत गुजरात के प्लेटफ़ॉर्म पर भीड़ कम हुआ करती है। दुकानें सजी हुईं पर उनपर भीड़ नदारद। वेण्डर ज्यादा लोग कम। पुरसुकून की स्थिति में मै ट्रेन के टाइम पर स्टेशन आ चुका था। पर भारतीय रेल की अपनी सार्वभौमिक विशेषताएं हैं, जो देश-काल से प्रभावित नहीं होतीं। ट्रेन दो घंटे लेट थी। किताबें मेरी यात्रा का सहज हिस्सा हैं और ऐसी ही परिस्थितियों के लिए इनका साथ होना ज़रूरी भी है।

एक खाली पड़ी बेंच पर मै अधलेटा सा बैठ गया। बैग का सहारा लेकर। असगर वजाहत की एक किताब मेरे हाथों में थी। मुझे लेखन में जब तक लेखक का अक्स नज़र ना आये, पढ़ने का मज़ा नहीं आता। और ये जनाब पूरे दिल और शिद्दत से लिखते हैं। शैली भी रोचक और कथ्य भी। "मै हिन्दू हूँ" की कहानियों में मै खोया हुआ था कि बगल में एक किशोर ने अपना बैग रखते हुए कहा "अंकल कहाँ जाना है आपको।" अमूमन तो मै यात्रा में बोलता नहीं। पर बच्चे के चेहरे पर एक आकर्षण था। "बेटा मै दिल्ली जा रहा हूँ वहां से कानपुर जाना है।"

उस लड़के ने मुड़ कर गुजराती में अपने माँ-बापू को बताया ये अंकल भी कानपुर जा रहे हैं। पूरा परिवार मेरे पास आ गया। उसकी एक छोटी बहन भी थी जो 10वीं में पढ़ रही थी। पिता ने बहुत ही गर्व से बताया मेरा लड़का देश के सर्वोच्च तकनीकी संस्थान आई आई टी, कानपुर में दाखिला लेने जा रहा है। आप भी क्या कानपुर के रहने वाले हैं। कैसा शहर है, कैसे लोग हैं। आदि-आदि प्रश्न। मेरा लड़का तो अभी बहुत छोटा है। पहली ही बार में सेलेक्ट हो गया। घर से इतनी दूर पहली बार जा रहा है। बड़ी चिंता हो रही है।

मैंने अपने कनपुरिया ज्ञान को कायम रखते हुए आई आई टी की शान में कसीदे पढ़ दिए। अरे एकदम अंतर्राष्ट्रीय संस्थान है। आपको बिल्कुल चिंता करने की ज़रूरत नहीं है। वहां बच्चे पढाई में रमे रहते हैं। सिर्फ ज्ञान की चाह वाले ही वहां पहुँच पाते हैं। आपका बेटा तो लाखों में एक है तभी वहां पहुँच पाया।

पिता, माँ व बहन सभी अपनी-अपनी जिज्ञासा को शांत कर लेना चाहते थे। परन्तु बच्चे को कोई कौतुहल नहीं था। वो मुस्कराता हुआ सब बातें सुन रहा था। माँ-बहन अपनी संवेदनाओं को छिपा कर शांत बने रहने का भरसक प्रयास कर थीं। पिता ऊपर से सहज बने हुए थे। मुझे पढाई के लिए पहली बार घर छोड़ते हुए जो एहसास हुआ था। देश के इस कोने से इतर नहीं था। माँ-पिता-बहन का वो चेहरा भुलाने में दशकों गुज़र गए। पर अभी भी वो दृश्य जेहन में ताज़ा है। आज वो दृश्य पुनर्जीवित हो गया।

दो-ढाई घंटे कब बीत गए पता ही नहीं चला। तभी ट्रेन आने की घोषणा हुई। असुविधा के लिये औपचारिक खेद भी व्यक्त हुआ। माँ की आँखे डबडबा आयीं। बेटी, माँ की ओर देख कर उसके दर्द को समझने का प्रयास कर रही थी। पिता ट्रेन आने की दिशा में शून्य सा ताक रहा था। बेटा अन्यमनस्क सा ट्रेन जाने वाली दिशा में निहार रहा था। 

ट्रेन ने प्लेटफोर्म के बायें सिरे से प्रवेश किया।

माँ की सब्र का बाँध टूट चूका था। उसकी आँखों से आंसू झर-झर बहने लगे। बहन की आँखें नम हो आयीं थीं। उसने मुंह को रुमाल से दबा लिया पर उसकी सिसकी बरबस बाहर निकल ही गयी। पिता मिनरल वाटर की बोतल लेने के बहाने दृश्य से बाहर हो गए थे।

हमारा कोच अलग था। ट्रेन के रुकते ही हम फिर अजनबी हो गए थे। मै अपने कोच की ओर बढ़ चला था।

ट्रेन चलने में देर लग रही थी। मै प्लेटफ़ॉर्म पर उतर आया चहल-कदमी के इरादे से या पुनः उस परिवार को देखने, कह नहीं सकता।

माँ-बेटी एक-दूसरे को गले लगाये जार-जार रो रहीं थीं। पिता उन्हें समझाने की कोशिश कर रहा था कि कौन सा बेटा परदेश जा रहा है। बेटा भावहीन सा गेट पर खड़ा था। पिता ने उसे अन्दर जाने का इशारा किया। अन्दर जाते-जाते वो मुड़ा। उसके चेहरे पर बुद्ध-भाव था।

ज्ञान की तलाश में घर तो छोड़ना ही पड़ता है। बुद्ध वापस आने के लिए घर नहीं छोड़ते।पिता को मालूम है।

- वाणभट्ट

शनिवार, 18 अगस्त 2012

गुलज़ार की छिहत्तरवीं सालगिरह पर

गुलज़ार की छिहत्तरवीं सालगिरह पर

एक लम्हा गली के मुहाने पर ठिठक गया 
एक ने हिम्मत करके अन्दर झाँका 
गली बहुत संकरी थी 
और दूसरे मुहाने पर बंद भी

थोडा ठिठक कर 
थोडा झिझक कर 
एक लम्हा अन्दर घुस पड़ा

अन्दर पूरा लम्हों का कब्रिस्तान था
सड़े - गले लम्हों से बचता बचाता 
वो लम्हा आगे बढ़ता गया 

गली के अंत में 
खुले बालों वाली लड़की मिली 
जिसकी फिराक में कई लम्हों ने दम तोड़ दिया था 
कुछ सिसकियाँ ले रहे थे 
कुछ हिचकियाँ 

अचानक वो लड़की लम्हे में तब्दील हो गई   
इस लम्हे ने कुछ साँसे उसके तैरते बदन पर रख दीं 
सुनहरे परों वाली परी में बदल गयी वो  
साँसों ने साँसों को भर लिया 
और सांसें एक हो गयीं

संकरी बंद गली के भीतर 
एक मैदान मिल गया 

और हर लम्हे को जीने का मकसद 

- वाणभट्ट 

बुधवार, 15 अगस्त 2012

इन्साफ की डगर पर...

इन्साफ की डगर पर... 

इस गीत को सुन-सुन के हम बड़े हुए हैं. 1961 में गंगा-जमुना आई थी. और 1965 में मै अवतरित हुआ. बचपन से ये गाना कुछ जेहन में अन्दर तक घुस गया है. और हर पंद्रह अगस्त-छब्बीस जनवरी को ये मेरे रोम-रोम से फूटता है. अब लगभग पचास का होने को आ गया हूँ. और पता नहीं क्यों मुझे लगता है ये गीत हमारे हम-उम्र लोगों के लिए ही लिखा गया होगा. तब गीतकार शकील बदायूंनी साहब ने उस समय के हम जैसे बच्चों से ये उम्मीद लगाईं रही होगी कि ये बड़े होकर नेता बनेंगे उनके सपनों के भारत की. 

अब हम बच्चे तो रहे नहीं. पर अब हमारी उम्र के ही लोग अब नेताओं के जगह पर आ गए हैं. खींच-तान कर कोई किसी विभाग का हेड हो गया कोई निदेशक. कोई उससे भी उपर बैठा है प्राइवेट कंपनी में मैनेजर बन कर. हमारी संस्कारों में कहीं तो कमी ज़रूर रही होगी जो हमने आदर्श बच्चों के लिए छोड़ दिए और समाज की सारी विकृतियों के अपने में ज़ज्ब कर लिया. हमारे तथाकथित मैनेजर आज उसी बीमारी से पीड़ित हैं जिससे भूत के राजा-महाराजा, दूसरों पर राज करने की. जिसके पास पैसा-पावर-पद है, वो इतिहास में अपना नाम दर्ज करने को लालायित है. वो ये भूल गया है उसको पद या पावर यूज़ करने के लिए मिला है, मिसयूज़ करने के लिए नहीं. पर वो पावर भी किस काम की जिसे मिसयूज़ न किया जा सके. 

सत्ता की हनक क्या सरकार क्या अधिकारी सभी के पोर-पोर में समा गयी है. और उनकी आत्मा में अंग्रेजों की रूह. भई हमने इतनी मेहनत सिर्फ समाज सेवा करने के लिए तो की नहीं. शुरू से ही अपने अफसरों की चाकरी इसलिए की कि  भविष्य में हमें भी ऐसे ही चाकर मिलें. उनके हर-सही गलत काम को सर आँखों पर लिया तभी आज यहाँ तक पहुंचें हैं. कितनी गलत बातों में सहमति दी, कितना घूस कमा-कमा कर ऊपर पहुँचाया, कितने सिस्टम में अनफिट लोगों को फिट किया, कितने अनफिट को आगे बढ़ने नहीं दिया, ऊपर वाले के आगे कभी सर नहीं उठाया, कभी उनके निर्णय को मना नहीं किया, भले ही उससे देश का कितना भी बड़ा नुक्सान हो गया हो. आउटस्टैंडइंग पाने के लिए "बॉस इज अल्वेज़ राइट" को मूल मन्त्र बनाया. इतने जतन के बाद जब कुर्सी मिली है तो अब देश-समाज हमसे इमानदारी-भाईचारे-उत्थान-भारत निर्माण की उम्मीद कर रहा है. इम्पोसिबल. कतई नहीं.

अब तो हम इस स्तर पर आये हैं कि राज कर सकें. किसी की जिंदगी बना और बिगाड़ सकें. अब हम बच्चे नहीं रहे. ये आदर्श, कोरे-आदर्श या तो समाजसेवियों के लिए हैं या साधू-संतों के लिए. मै तो आम आदमी हूँ, जैसी दुनिया देखी है वैसे ही चलूँगा. इस भूखे-नंगे देश में अगर आप अपनी आने वाली नस्ल के लिए एक समृद्ध विरासत नहीं छोड़ पाए, वो भी उच्च पद पर रहते हुए, तो क्या किया.सो मै अपनी सात पुश्तों को तारने के लिए हर संभव कोशिश करूँगा. जंग और प्यार में सब जायज़ है. जहाँ 125 करोड़ लोग आपसी प्यार की निशानी हैं, वहां खाने के लिए चुपड़ी रोटी का इंतजाम एक जंग से कम नहीं है. मैंने तो अपनी जंग जीत  ली है. अब चिंता निक्कमे पप्पू, ऐय्याश चुन्नू, बदनाम मुन्नी की है. हराम का पैसा इनकी रग-रग में बह रहा है. इनके सुखमय जीवन के लिए मै नहीं कुछ करूँगा तो और कौन करेगा.          

किसी बच्चे को हमने अन्याय करते या दादागिरी करते तो देखा नहीं. यहाँ सब आदर्श बच्चों के लिए मान लिए जाते हैं. कोई मुझ सा अधेड़ अगर उस की बात भी करे तो ये उसकी अपरिपक्वता की निशानी है. कहाँ चुप रहना है, कहाँ बोलना है, कहाँ आँखें मींच लेनी है. अब ये सब कोर्स में होना चाहिए. आदर्श की किताबों को आग लगा दो और जमीन के नीचे दफ़न कर दो. कम से कम बच्चों को कन्फ्यूज़ न करो इमानदारी और आदर्श के चक्कर में. करना है तो बड़ों के लिए आचारसंहिता बनाओ. उनसे आदर्श के पालन करवाओ और न करने पर सजा दिलवाओ. 

सो मुझे लगता है ज़रूरत है इस गीत को नए सिरे से लिखे जाने, हम बड़ों के लिए. बदायूंनी साहब से माफ़ी के साथ मै इस गीत को इस देश के हम-उम्र लोगों के लिए समर्पित कर रहा हूँ, जिन पर वाकई देश की व्यवस्था है, और जिनका एक-एक निर्णय देश को आगे या पीछे ले जा सकता है. इन्हें न बच्चों की कैटेगरी में रखा जा सकता है न युवाओं की. बुड्ढे  तो ये अभी हुए नहीं हैं. अधेड़ शब्द मुझे अजीब लगता है इसलिए इन्हें क्या कहा जाए मुझे नहीं मालूम. पर देश के लिए कुछ करने का ज़ज्बा इन लोगों में जागृत करने की ज्यादा आवश्यकता है.  

इन्साफ की डगर  पे ______ दिखाओ चल के... 
ये देश है तुम्हारा नेता तुम्हीं हो अब के ...

दुनिया के रंज सहना और कुछ न मुंह से कहना 
सच्चाइयों के बल पे आगे को बढ़ते रहना 
रख दोगे एक दिन तुम संसार को बदल के...


इन्साफ की डगर  पे ______ दिखाओ चल के... 
ये देश है तुम्हारा नेता तुम्हीं हो अब के ...


अपने हों या पराये सबके लिए हो न्याय 
देखो कदम तुम्हारा हरगिज़ न डगमगाये 
रस्ते बड़े कठिन हैं चलना सम्हल-सम्हल के...


इन्साफ की डगर पे ______ दिखाओ चल के... 
ये देश है तुम्हारा नेता तुम्हीं हो अब के ...


इंसानियत के सर पर इज्ज़त का ताज रखना 
तन मन की भेंट दे कर भारत की लाज रखना 
जीवन नया मिलेगा अंतिम चिता में जल के...


इन्साफ की डगर  पे  ______ दिखाओ चल के... 
ये देश है तुम्हारा नेता तुम्हीं हो अब के ...


इस गीत को अपने बच्चों के सामने जोर से गाइए, देखिएगा आपको अपना बचपन याद आ जायेगा. कितने जोश से हम इसे अपने स्कूलों में सुबह की प्रार्थनाओं में गाया करते थे. हम बिगड़े नहीं थे, हम बिगड़ नहीं सकते और हम बिगड़े नहीं हैं. जीवन की चूहा-दौड़ में हम अपना वजूद भूल गए हैं बस.

जय हिंद, जय भारत, वन्दे मातरम !!!

- वाणभट्ट 


शनिवार, 12 मई 2012

अन्नदाता

अन्नदाता 

इतनी हरियाली के बावजूद किसान को ये नहीं मालूम कि 
उसके गाल  की हड्डी क्यों उभर आई है ?
उसके बाल सफ़ेद क्यों हो गए हैं ?
लोहे की छोटी दुकान पर बैठा आदमी सोना 
और इतने बड़े खेत में खड़ा आदमी मिटटी क्यों हो गया है 

धूमिल की ये पंक्तियाँ किसी भी सहृदय व्यक्ति को उद्वेलित करने में सक्षम हैं. जिधर देखो बाज़ार सजा पड़ा है. भांति-भांति के गैजेट्स आ गए हैं. आदमी उन्हीं को पाने की होड़ में सबसे अहम चीज़ भूल गया है. रोटी और रोटी की कीमत. 

लोगों को बाज़ार में आई नयी कार का दाम पता हैं, लैपटॉप का लेटेस्ट वर्ज़न कौन सा आया है, कौन सा मोबाईल ले के चलने में शान बढ़ती है, फ़्रांस-अमेरिका में कौन सा फैशन चल रहा है, कौन सी मॉडल मिस यूनिवर्स की दौड़ में आगे चल रही है, टी. वी. पर किस सीरियल की क्या टी आर पी है, आई.पी.एल. में पोलार्ड कितने में बिका, कन्याकुमारी और गोवा तो अब मिडिल क्लास लोग भी एल.टी.सी. पर जा रहे हैं, मलेशिया और सिंगापुर का चार दिन - तीन रात का होलीडे पॅकेज कितने का पड़ेगा, आल वेदर ए.सी. के क्या फायदे हैं, आकाश टैब से अच्छे कितने टैबलेट उपलब्ध हैं, रे-बैन का चश्मा लगाने वाला सभ्य और सुसंस्कृत ही माना जाता है, कार की कीमत आदमी की औकात तय करती है. हर तरफ आदमी पर बाज़ार हावी है. 

और खासियत ये है कि हर कोई उस चीज़ के लिए दुखी है जिसका वास्तविक जीवन से कोई लेना-देना नहीं है. जीवन वस्तुतः है क्या? बहुत ही साधारण सी अवधारणा है, पैदा होने से मरने के बीच कुछ करना, और निरंतर करते रहना. कर्म से अर्जन और अर्जन से कर्म कर सकने योग्य शरीर हेतु भोजन. शायद ऐसी जिंदगी आदमी ने जानवरों के लिए छोड़ रक्खी है. उसे तो अर्जन को बस भोग में व्यय करना ही अच्छा लगता है. तभी तो वो सारी उम्र एक सुख से दुसरे सुख की चाह में भटकता रहता है. और भौतिक सुखों की आयु कितनी होती है. तभी तक जब तक वो वस्तु आपके पास नहीं है. 

दुनिया जिसे कहते हैं, जादू का खिलौना है,
मिल जाए तो मिटटी है, खो जाए तो सोना है.

इस बहिर्मुखी सम्पन्नता के दौर में आदमी ने आदमी की ही कीमत लगा दी है. संपन्न वो है जो दूसरों का समय और श्रम खरीद सकता है. शहर का आदमी अपनी शाब्दिक और मानसिक योग्यता के बल पर नयी नयी ऊँचाईयां छू रहा है. एक करोड़ का पे-पैकेज मिल जाना अब अजूबा नहीं लगता. पता नहीं ये आदमी की पे-बैक वैल्यू भी है या नहीं. वो  देश को वो इसका कम से कम कितना हिस्सा लौटा पायेगा इसमें संशय ज़रूर है. जहाँ सौ करोड़ लोग सिर्फ जीने के लिए जद्दोज़हद कर रहे हों वहां कुछ को दस लाख की आय और कुछ को गुज़ारा भत्ता भी नहीं, बड़ी बेइंसाफी है. एक आदमी को दस लाख तो दिया जा सकता है दे सकती है पर दस आदमी को एक लाख नहीं. और गरीबी की रेखा तो गरीबों का मजाक बन कर रह गयी है. एक आदमी को अपने पुराने ए.सी. और कार पर इन्फेरीयारीटी काम्प्लेक्स हो रहा है जब कि एक दो जून की रोटी के लिए संघर्ष कर रहा है. 

भवानी प्रसाद मिश्र जी की ये पंक्तियाँ जेहन में कौंध रहीं हैं -

ऐसी सुविधा मत करो 
कि कोई सिर्फ दस्तखत करते रह कर  
महल-अटारी-मोटर-तांगे-वायुयान में चढ़ कर डोले 
न ऐसी सुविधा रहे कि केवल पढ़-लिख कर 
कोई किसान, कर्मकर, बुनकर से बढ़ कर बोले.

दुर्योग से जिस भौतिकवादी संस्कृति का उदय हो चुका है, उसमें आदमी को अपने सिवा कुछ दिखाई देना लगभग बंद हो गया है. महानगर में आधे करोड़ के पॅकेज प्राप्त एक मैनेजर महोदय के सामने मैंने बढ़ती मंहगाई का जिक्र कर दिया. उन्होंने सारा दोष मेरी अकर्मण्यता पर धर दिया। व्यर्थ की बातें सोचने में जितना समय बर्बाद करते हो उतना किसी प्रोडक्टिव काम में लगाते तो पैसों का रोना नहीं रोते. तुम जानते हो एम.बी.ए. की पढाई कोई हंसी खेल तो है नहीं. कितना रगडा है खुद को तराशने के लिये. पर अब मंहगाई चाहे कितनी भी बढ़ जाए मेरी सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता. दाल चाहे सौ रुपये किलो हो या दो सौ  रुपये मै खरीद सकता हूँ. इसे मै उनकी गर्वोक्ति नहीं मानता. वो वाकई पढाई में बहुत योग्य था और मेहनती भी. उसके मुकाम पर मुझे फक्र भी है. पर कभी-कभी लगता है कि क्या लक्ष्मी सिर्फ बुद्धि, बलशाली और योग्य लोगों के लिये ही हैं. बाकि को ठीक से जीने का भी अधिकार नहीं है. और पैसे का इतना नग्न प्रदर्शन विचलित करने वाला है. 

अमूमन किसी भी व्यवसाय में व्यापारी उत्पादन के पूरे मूल्य पर मुनाफा जोड़ कर उसका दाम नियत करता है. पर किसान की खेती का मूल्य सरकार तय करती है. पर इसमें कृषि भूमि का व्यावसायिक मूल्य नहीं होता, न ही किसान और उसके परिवार के श्रम का ही मूल्य होता है. बीज बोने से फसल तैयार होने तक कृषक के श्रम को वो हो समझ सकता है जिसने कृषि जीवन को निकट से देखा हो. इसके बाद आढ़तियों के दुश्चक्र में किसान को समर्थन मूल्य भी नहीं मिल पाता. भण्डारण की सुविधा न होने के कारण वो अपनी उपज को औने-पौने दाम पर बेचने को विवश हो जाता है. और वहीं व्यापारी और मुनाफाखोर किसान के श्रम का अधिकतम लाभ ले जाते हैं. पढ़-लिख कर मिले रोजगार, जिन्हें सफ़ेद कॉलर जॉब कहा जाता है, को लोग समाज में बहुत सम्मान से देखते हैं पर क्या कभी हम अपने किसानों का, जिन्हें अन्नदाता भी कहते हैं, उचित सम्मान कर पाएंगे. पढ़े-लिखे लोगों लोगों का शारीरिक श्रम के प्रति अनादर एक भयावह सच बन चुका है. स्कूलों में हर छात्र को शारीरिक श्रम कर के एक रोटी बनाना अवश्य सिखाया जाना चाहिये ताकि वो मानव श्रम का महत्त्व समझ सके. एक अज्ञात भोजपुरी कवि की कविता साझा कर रहा हूँ : 

पिचक जईहैं पेटवा, चुचुक जईहैं गाल 
जिस दिन करिहैं भैया किसान हड़ताल.

- वाणभट्ट

गुरुवार, 19 अप्रैल 2012

एक तर्क : बाबाओं के पक्ष में

एक तर्क : बाबाओं के पक्ष में

इधर बाबाओं की शामत आई है. हिंदुस्तान का हर तथाकथित बुद्धिजीवी बाबाओं को पानी पी-पी कर कोस रहा है. शायद उसे लग रहा है कि इतना ज्ञानार्जन कर के भी वो अभी तक नौकरी में जूते चटका रहे हैं या दूसरों की चाकरी कर रहे हैं. और लम्पट बाबा सिर्फ लोगों पर आशीर्वाद बरसा कर अकूत दौलत इकठ्ठा कर रहे हैं. इधर जब से लोगों में समृद्धि बढ़ी है वो अपने आगे किसी को कुछ भी समझने को तैयार नहीं है. बाबा की समृद्धि पर तो उसकी निगाह है, पर गलत तरीके से कमाए अपने रुपये उसे उचित जान पड़ते हैं. हर आदमी जब धन के प्रति लालायित है, तो उसे लगता है, बाकि सबको महात्मा की तरह रहना चाहिए ख़ास तौर पर बाबाओं को जिन्होंने अधिकारिक तौर पर माया को तिलांजलि दे रक्खी है. हाल ही में कुछ राजनेताओं ने तो बाबाओं को ढोंगी करार दे कर उन्हें पत्थर बांध कर नदी में डूबा देने तक की बात कर डाली. धन्य हैं वो लोग जो अपनी सत्ता के आगे दूसरों की सत्ता से घबरा जाते हैं. खुद तो हर ऐसा काम करने को तैयार हैं जिससे लक्ष्मी आती है, पर दूसरा सिर्फ और सिर्फ ईमानदारी से धनार्जन करे. ऐसी ही स्थिति पर एक उक्ति है, आपका प्यार, प्यार और हमारा प्यार चक्कर. 

मै बाबा भक्त हूँ पर अंध भक्त नहीं. इतने सारे चैनलों पर इतने बाबा अवतरित हो गए हैं, और हर एक के पीछे हजारों-लाखों की भीड़ खड़ी है तो ज़रूर भारत को उनकी ज़रूरत है. जिस देश में सरकार जैसी कोई चीज़ न हो और सामाजिक ढांचा भी चरमरा जाये ऐसे में आम आदमी कहाँ जाये. किसके कंधे पर सर रख के रोये. कहाँ अपनी बात कहे. पहले पास-पड़ोस, संयुक्त परिवार हुआ करते थे. हर समस्या का समाधान आपस में ही निकल आता था. अब हर आदमी अपनी-अपनी लड़ाई लड़ रहा है. हमारे बुद्धिजीवी कहेंगे, मनोवैज्ञानिक हैं न. पर क्या वो मुफ्त इलाज कर रहा है. वो भी अपने ज्ञान की पाई-पाई वसूल रहा है. वही काम तो बाबा मुफ्त कर रहा है. आराम मिल जाये तो लोग अपना तन-मन-धन सब न्योछावर करने को तैयार हैं. इसमें गलत क्या है.


कोई भी बाबा गलत बात नहीं सिखाता. अच्छी-अच्छी बातें करता है, जो अमूमन सबको पता हैं. सच बोलो. पडोसी से प्रेम करो. समाज सेवा करो. प्यासे को पानी पिलाओ और भूखे को खाना खिलाओ. घंटे-दो घंटे के प्रवचन को लोग श्रद्धा भाव से सुनते हैं. कम से कम उन दो-घंटों में तो वो कोई बुरा काम नहीं कर रहे हैं. घर जाते-जाते भी उसका कुछ प्रभाव ज़रूर बचता होगा. हर कोई तो धक्का-मुक्की कर के बाबा को सुनने जा नहीं रहा. जिसमें कुछ जिज्ञासा होगी वो ही वहां तक पहुँच सकता है. हम अपने ज्ञानियों को ये बहुत ही सहज रूप से कहते और गर्वोक्ति स्वीकार करते सुन सकते हैं कि भारत सदियों से विश्व का अध्यात्मिक गुरु रहा है. हममें से हर किसी ने महसूस किया होगा की भगवन अगर कहीं बसते हैं तो भारत में. घर से दफ्तर के रस्ते में जितने मंदिर-मजार पड़ते हैं, सर झुक ही जाता है. गैस सिलिंडर के लिए लाइन लगानी हो तो भगवान के आगे मत्था टेक कर निकलते हैं, कि हे भगवान आज गैस का ट्रक आ जाये. बच्चे का विज्ञान का परचा हो तो उसे दही-चीनी खिला के भेजा जाता है. शायद सरल प्रश्न-पात्र कि उम्मीद रहती हो. पंडित से बिना बिचरवाये न तो शादी हो रही है न समस्याओं का समाधान हो रहा है. पहले तो शादियाँ बिना कुंडली मिलाये हो भी जातीं थीं, पर अब विदेश में बसे लडके-लड़की के भी ३६ गुण मिला के देखे जाते हैं. ये बात अलग है कि शादी वहीँ होने की सम्भावना ज्यादा होती हैं जहाँ माल ज्यादा मिले. लोगों का गला और उंगलियाँ नाना प्रकार के मणि-माणिक्यों से लदा नज़र आना एक सामान्य बात है.

हम मोहल्ले के एक दबंग के आगे नतमस्तक हो जाते हैं, इलाके का सभासद पार्क पर कब्ज़ा कर लेता है और हम उसके रसूख से डर कर उससे अपने सम्बन्ध बनाये रखते हैं, सरकारी दफ्तरों के बाबुओं का पेट भरने में हमें कतई संकोच नहीं होता, भ्रष्ट और देशद्रोही अफसरों के हम तलुए चाटने से भी नहीं चूकते, हत्यारों, बलात्कारियों, घोटालेबाजों को कानून से खिलवाड़ करने का अधिकार है, आतंकवादियों को पोसना कोई हमसे सीखे, राजनेताओं और माफियाओं के मकडजाल में आम आदमी का जीना ही जंजाल बन गया है. ऐसे में अगर एक आसरा, एक संबल नज़र आता है तो वो है भगवान का. और गुरु और बाबा उनके इस धरती पर नुमाइनदे हैं. भारत में तो ऐसा ही लगता है. 

मेरे एक मित्र के भाई ऑस्ट्रेलिया में बसे हुए हैं. उनके माता-पिता जी कई बार वहां जा चुके हैं. हर बार जब वो अपने अनुभव बाँटते हैं तो लगता है, जहाँ कानून और व्यवस्था का राज होता है वहां न भगवान कि ज़रूरत है न बाबाओं की. एक बार उनके भाईसाहब परिवार के साथ हार्बर ब्रिज घूमने गए. उनके पिता जी ने विशुद्ध भारतीय अंदाज़ में कुछ खा कर उसका कागज़ (गोली बना कर) हार्बर ब्रिज से नीचे समुन्दर में गिरा दिया. ये देखते ही उनका ढाई साल का बच्चा चीख पड़ा, "पापा, बाबा हैज़ लिटर्ड". बच्चे की इस सत्यनिष्ठा की कीमत उन्हें पेनाल्टी दे कर चुकानी पड़ी. वहीं घर के अंदर किचेन में माता जी ने बहू का काम आसन करने के उद्देश्य से बर्तन माँजने का प्रयास किया. फिर उस देवदूत ने बहता नल देख दादी को नसीहत दे डाली "दादी यू आर वेस्टिंग वाटर". एक सन्नाटी सड़क पर वही भाईसाहब किसी की फेंस में अपनी कार घुसेड बैठे. उतर कर मकान  की घंटी बजाई, आस-पास देखा, कोई आदम न आदम जात. भाईसाहब ने सोचा जब किसी ने देखा नहीं तो निकल लो. पर ऑफिस पहुंचते ही फोन आया कि थाने चले आओ, दुर्घटना करके रिपोर्ट न करने पर भी पेनाल्टी है. और इन्सुरेंस से उस फेंस का पुनः निर्माण हो गया. मेरे एक मित्र को वियतनाम जाने का मौका मिला. कोई वैज्ञानिक गोष्ठी थी. जिसमें वहां के मंत्री और विभाग के मुखिया को भी आना था. नियत समय पर कार्यक्रम बिना मुख्य अतिथि के आरंभ हो गया और मुख्य अतिथि बीच में ही आकर अपने आसन पर बैठ गए. कार्यवाही निर्बाध रूप से चलती रही. कोई बुके ज्ञापन या अपने स्थान पर खड़े होने जैसी औपचारिकता की भी आवश्यकता नहीं समझी गयी. एक मित्र कीनिया और नाइजेरिया रह कर लौटे. उन्होंने बताया वहां सुबह-सुबह लोग रेलवे लाइन की पटरियों पर तीतर लड़ाने नहीं जाते. बल्कि उन्होंने पूरे अपने प्रवास के दौरान किसी को कहीं भी तीतर लड़ाते नहीं देखा. एक नाइजेरियन हमारे यहाँ ट्रेनिंग पर आया, वो हतप्रभ रह गया जब प्रातः भ्रमण के दौरान सब उसे घूर रहे थे पर उसकी गुड मोर्निंग का किसी ने जवाब देना उचित नहीं समझा. ये सब मै इस लिए लिख रहा हूँ कि आप ये महसूस कर सकें कि भगवान तो यहीं बसते हैं, बाकि जगह आदमियों का वास है और अगर वाकई हम सुधारना चाहते हैं तो किस उम्र से प्रयास करना चाहिए. या तो आदमी नियम-कानून से चल सकता है, या समाज से, या धर्म से. किसी का तो डर होना चाहिए. पर दबंगों के देश में सिर्फ समझदार को जीने की इजाजत है. मूर्खों के ऊपर ही तो ये समझदार टिके हैं. किसी भी नेता या अभिनेता का मंदिर तो बन सकता है. उन्हें चांदी-सोने से तौला जा सकता है पर बाबा जो लोगों को सिर्फ जीवन जीने का हौसला दे रहा है वो कैसे सोने के सिंघासन पर बैठ सकता है. 

सबके अपने-अपने हुनर हैं. कोई झूठ बेच रहा है, कोई छल. रोज धन को अल्प समय में दुगना-चार गुना किया जा रहा है. काले जादू वाले बाबा बहुतों की झोली भर रहे है. खानदानी शफाखाने अभी भी सड़क के किनारे दिख जायेंगे. नीम-हकीमों में हमारी आस्था कम नहीं हुई है. गंजों के सर पर बाल उगाये जा रहे है. रातों-रात सिर्फ चाय पी कर तोंद को गायब किया जा रहा है. इन्टरनेट और शेयर के माध्यम से लोगों के पैसे निकलवाये जा रहे हैं. सबका लक्ष्य भोली-भाली जनता है जो १२५ करोड़ पार कर चुकी है. १२५ से ऊपर जो दो-चार करोड़ हैं उनकी चिंता नहीं है, वो खुद किसी न किसी तरह लूट-खा रहे हैं. अगर आप में कोई भी हुनर है, आजमाइए इस देश में कद्रदानों कि कमी नहीं है.

मेरे मित्र जिनके भाई ऑस्ट्रेलिया में बस गए हैं, उनके माँ-बाप अपने उसी लायक बेटे के गुण गाते रहते हैं. और मेरे मित्र के जीवन का लक्ष्य है अपने वृद्ध माता-पिता को खुश रखना-देखना. एक बाबा जिसे उसने गुरु मान रक्खा है उसे कहता है बेटा प्रभु की इच्छा सर्वोपरि है. वो जिस हाल में रक्खे उसी में आनंद लो. निष्काम भाव से कर्म किये जाओ. ईश्वर सब देख रहा है. तुम्हें तुम्हारे सत्कर्मों का फल अवश्य मिलेगा. गुरु की तस्वीर जो उसने गले में टांग रक्खी है उसे हर विपत्ति से बचाती है और जीने का मकसद देती है. कम से कम उसका तो यही मानना है.

-वाणभट्ट       

शुक्रवार, 6 अप्रैल 2012

उगता सूरज


टहलने के नेक इरादे से घर के बाहर कदम रक्खा ही था कि शर्मा जी मिल गए.

"भाई वर्मा जी, क्या बात है पूरा महीना निकल गया और आपने कोई पोस्ट नहीं चेपी. ख्याल चुक गये क्या. आपकी ब्लॉग फ्रीक्वेंसी बहुत कम है. और लोग हैं कि रोज़-रोज़  चेप रहे हैं."

मैंने एक्सप्लेन करने कि मुद्रा में बचाव किया "शर्मा जी, मै कोई रेगुलर लेखक या कवि तो हूँ नहीं. जब भड़ास हद से गुज़र जाती है तो उड़ेल देता हूँ. मेरी इस दिशा में फिलहाल कोई कैरियर बनाने की कोई इच्छा भी नहीं है. वैसे भी ब्लॉग लिखने की प्रक्रिया बहुत उत्साहवर्धक नहीं है. पूरी जान लगा के लिखो तो खींचखांच के २५-३० पाठक ही मिलते हैं. तीन साल में फोल्लोवर लिस्ट अभी ३० के पार पहुंची है. जिसमें एक तो मैं खुद ही हूँ. इस चक्कर में दूसरों के पता नहीं कैसे - कैसे ब्लॉग पढ़ने पड़ते हैं, सो अलग से. कभी-कभी दिल टूट जाता है. और इच्छा होती है कि बस बहुत हो गया अब ब्लॉग नहीं लिखूंगा. पर क्या करूँ जब विचार दिमाग फाड़ने लगें तो यही एक जगह है जहाँ जा के हल्का हुआ जा सकता है. अपना कोई पब्लिशर तो है नहीं. एक बार पैसा दे कर कविता संग्रह छपवा तो लिया पर अब समस्या ये है कि जो कॉम्प्लीमेंट्री २५ कॉपियाँ मिलीं थीं उनका क्या करूँ. पिछले हफ्ते तो अति हो गयी. बीवी कहती है बिग बाज़ार में सेल लगी है. कबाड़ बेचो तो २५% तक डिस्काउंट मिल रहा है. तीन-चार किलो की तो ये होंगी ही. खामख्वाह बच्चों की अलमारी घेर रक्खी है. मैंने शायद बहुत घूर के देखा होगा, दो-चार दिन स्वाद का तड़का खाने में नहीं लगा."

शर्मा जी मेरे उन हिमायतियों में से हैं जो नियमित रूप से मेरे ब्लॉग पर पहुँच कर अपनी उपस्थिति ज़रूर दर्ज कराते हैं. मेरे प्रशंसक कम आलोचक ज्यादा. वैसे भी मै जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आलोचकों के प्रति सदैव आभारी रहा हूँ. ये ही वो जीव हैं जो आदमी को आदमी बनाये रखते हैं. वर्ना जिसे सिर्फ चढाने वाले मिल जायें, उसे खुदा बनते देर लगती है क्या. और कोई किसी को तब तक नहीं चढ़ाता जब तक उसका कोई स्वार्थ-सिद्ध न होता हो.

शर्मा जी ने उवाचा, "वर्मा जी ब्लॉग को पॉपुलर करना भी हुनर है. आप वाणभट्ट के छद्म नाम से लिख रहे हो. अरे, वाणी भट्ट के नाम से लिखो. जब नाम छद्म है ही, तो क्या स्त्रीलिंग, क्या पुल्लिंग. इन्टरनेट से किसी मॉडल की खूबसूरत फोटो ले कर चेप दो. देखो फॉलोवर्स लिस्ट कैसे बढ़ती है. एक तो आपको कोई ढंग का नाम नहीं मिला. दूसरे खच्चर पे सवार किसी खणूस की फोटो लगा रक्खी है. बताओ कैसे लोगों को आकर्षित करोगे. लेखनी में भी दम  है नहीं. उथली-उथली बातें करते हो. गाम्भीर्य का सर्वथा अभाव है. लोग ब्लॉग को ले कर कितने सीरियस-संजीदा हैं. और आप हैं कि हें-हें, हें-हें कर रहे हैं. मेरा बताया नुस्खा आजमाइए और देखिये कामयाबी आपके कदम चूमेगी. हम वो नहीं हैं जो ख्वामख्वाह फाख्ता उड़ाते हैं (अंतर्मन की आवाज़ - गोया फाख्ता उड़ाने का भी कोई परपज होता है). बात में वज़न हो तो लोग ख़ुद-ब-ख़ुद  खींचे आते हैं."

वज़न का ज़िक्र आते ही मुझे अपने बढ़ते वज़न की याद हो आयी. इसीलिये तो मैंने टहलना शुरू किया है. सरसरी तौर पर शर्मा जी की कमर पर मेरी नज़र दौड़ गयी. माशाअल्ला, कमरा बनने की कगार तक पहुँच गयी थी. शर्मा जी ने मुद्दा थमा दिया था. मुझे उम्मीद जग गयी कि आज शाम तक एक ब्लॉग अवतरित हो जायेगा. मैंने फटाफट शर्मा जी को उनके नेक विचारों के लिए धन्यवाद दिया और सरपट खच्चर गति से निकटवर्ती पार्क की ओर अग्रसर हो गया.

इस देश ने आज़ादी के बाद काफी सम्पन्नता हासिल की. जो हर तरफ परिलक्षित हो रही है (गाम्भीर्य भरने का प्रयास). जिसे देखो गाड़ी-घोड़े बदल रहा है. मंहगाई के साथ ही एक से एक विशाल अट्टालिकायें बन रही हैं. लोग अपनी नव अर्जित संम्पत्ति का शर्मनाक प्रदर्शन करने का कोई अवसर नहीं चूकते. अभी तक लक्ष्मी सिर्फ व्यापारियों या भ्रष्टाचारियों पर ही मेहरबान थीं, पर अब तो सरकारी तनख्वाहों पर पलने वालों पर भी उनकी कृपा दृष्टि पड़ रही है. पे कमीशन और निरंतर बढ़ रहे डी.ए. के कारण अब सरकारी नौकरी भी उतनी बुरी नहीं रह गयी है, जितनी हुआ करती थी. प्राइवेट में तो जिसे देखो लाखों के पैकेज पर काम कर रहा है. कुछ प्रोफेशनल लोग तो अब प्राइवेट छोड़ कर सरकारी नौकरियों का रुख़ कर रहे है. जहाँ नियमित आय के साथ-साथ कुछ सिक्यूरिटी भी मिल जाती है. कहने का मौजूँ ये है कि हर तरफ समृद्धि की बहार है. समृद्धि हर जगह टपकी पड़ रही है या कहें फटी पड़ रही है, तो ज़्यादा उपयुक्त होगा. (गंभीरता बहुत हो गयी अब औकात पर आ जाता हूँ.)

सबसे ज्यादा फर्क पड़ा है आदमी के वज़न में. (शर्मा जी संभवतः अब खुश हो जायें क्योंकि मैंने बात-बात में वज़न डालने की कोशिश की है). घूमने-खेलने के संसाधनों में ज्यादा वृद्धि तो नहीं हुई है, पर खान-पान के आलयों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हर तरफ सहज दिख जाती है. गली-कूचों और कस्बों में फ़ूड जॉइंट खुल गये हैं और लगातार खुल रहे हैं. केऍफ़सी, पिज़ा हट, डोमिनो, मेक्डोनाल्ड, सबवे आदि-आदि न जाने कितने मल्टी नेशनल रेस्टोरेंट्स अब बड़े शहरों में नहीं रीवा, मीरजापुर, इलाहाबाद, कानपुर जैसे शहरों में भी पॉपुलर होते जा रहे हैं. नियोन लाइट में सजे इनके होर्डिंग्स हर जगह दिखना अब आम बात हो चली है. लोगों को भी कम पैसे में ज्यादा कैलोरी की चीजें जितना आकर्षित करतीं हैं, उतनी हाई फाइबर, लो कैलोरी वाली नहीं. जंक फ़ूड का ज़माना है. बच्चे चॉकलेट और कुरकुरे के लिये तो होम वर्क भले कर लें, पर दादी के हाथ के बने फरे देख घर छोड़ भाग जाते हैं. मटर का निमोना उन्हें बहुत शैबी लुक देता है पर मंचूरियन की गंदली करी वो बड़े स्वाद से खाते हैं. लिहाजा ऐसे फ़ूड जॉइंट्स की बाढ़ आ गयी है. और उन पर शाम होते-होते लोग बर्र के छत्ते सा टूट पड़ते हैं. अफोर्ड करने की बात है. आप के.ऍफ़.सी. से लेकर सड़क किनारे चुन्नू नूडल कार्नर तक कहीं भी मुंह मार सकते हैं. चाइनीज़, थाई, इटालियन या स्पनिश जैसा भी टेस्ट रखते हैं, हर प्राइस रेंज में चीजें उपलब्ध हैं. और लोग है कि अपनी समृद्धि का एक बड़ा हिस्सा घर के बाहर खाने में खर्च कर रहे हैं. अजीनोमोटो डाल-डाल के ये विदेशी व्यंजन आपके मुंह को लार से भर देते हैं. और आप उनके स्वाद के एडिक्ट बन जाते हैं. खैर समृद्धि आपकी है, पेट आपका है, तो खाइये दिल खोल के. घूमना-सैर-सपाटा अभी भी मंहगा है. अच्छे क्लब की मेम्बरशिप तो पैदायशी समृद्धों के लिये है.

गुड डे बिस्कुट का एड आता है कि काजू है तो दिखना चाहिए. वैसे ही समृद्धि हो तो छलकनी चाहिए. कंज्यूमर ड्यूरेबल में तो जो लगाओगे वो तो एक दिन में ख़त्म होगा नहीं. सो लोग कंज्यूमर नॉन-ड्यूरेबल से ही अपनी पहचान बनाने में लग गए हैं. कपडे ब्रांडेड, चश्मे ब्रांडेड, परफ्यूम ब्रांडेड, और तो और खाना भी ब्रांडेड. मिठाई की जगह चॉकलेट ने ले ली है. घर में पार्टी देने के बजाय मेक्डोनाल्ड में ही गेस्ट बुला लेना लेटेस्ट फैशन है. किसी माध्यम वर्गीय परिवार में बिन बुलाये भी पहुँच जाइये तो वो आपकी खातिर रोस्टेड काजू और गरिष्ठ मिठाइयों से कर सकता है. कुल बातों का लब्बो-लबाब ये है कि समृद्धि का एक बड़ा हिस्सा आदमी आज अपने खाने पर खर्च कर रहा है. 

और ये समृद्धि पता नही कैसे-कैसे और कहाँ-कहाँ से छलकती है, सुभानल्लाह. किसी ने पैंट ३६ से ४० करा रक्खी है, तो पीछे एक विक्टरी वाला वी बनता है, मानो जग जीत लिया. कहीं बेल्ट बेचारी स्ट्रगल करती नज़र आती है. कहीं तोंद शर्ट की बटनों के बीच से बाहर के नज़ारे लेने को आतुर दिखायी देती है. ओवर वेट होना आज का स्टेटस सिम्बल है. बचपन से ही बेटा अपना नाम करना शुरू कर देता है, देखते ही लगता है किसी खाते-पीते घर का नुमाइन्दा है. महिलाओं का तो हिन्दुस्तानी पोशाक में विशेष ध्यान रक्खा है. जितना चाहो उतना बड़ा फलेंटा मार लो. फिर बढ़ते कमरे के हिसाब से कुर्ते और सलवार में दाब छोड़ दो. यहाँ तो पुरुष भी धोती ही पहनना पसंद करते थे. पर भला हो अंग्रेजों का जो पतलून इस देश में इंट्रोड्यूस कर गए. जींस ने तो रही-सही कसर भी पूरी कर दी. बढ़ने की कोई गुंजाईश नहीं छोड़ी. ये मै कहाँ आ गया. आज तो मूड वज़नदार बात करने का था पर मै वापस अपने स्टैण्डर्ड पर आ गया.

समृद्धि का सीधा असर हमारे रहन-सहन पर पड़ता है, उसका असर खान-पान पर और उसका असर वज़न पर. तो भैया समृद्धि इज डायरेक्टली प्रपोशानल टु वज़न. जितने लोग दुर्भिक्ष में भूँख से नहीं मरे होंगे, उतने आज खा-खा के मर रहे हैं. वज़न अपने साथ कई महान बीमारियाँ भी लाता है. पर भाई लोगों का मानना है, बीमारी भी हो तो पैसे वाली. जिसके इलाज में जितना खर्च, वो उतना अमीर. कुछ लोगों के तो शरीर से कोलेस्ट्राल टपकता दिखाई पड़ता है. पर भाई का कौनफिड़ेंस इतना तगड़ा है की रोटी सूखी तो गले से उतरती ही नहीं. अपने मोबाइल में शहर के हार्ट स्पेशलिस्ट का नंबर फीड कर रक्खा है. उनसे बात भी कर रक्खी है. ५०-६० हज़ार में बाइपास और डेढ़-दो लाख में मेडिकेटेड स्टंट पड़ जाता है. कानपुर में रीजेंसी में फाइव स्टार सुविधा है तो दिल्ली में अपोलो और एस्कोर्ट है ही. वज़न ज्यादा है तो लोड तो घुटनों पर ही पड़ेगा. घुटना प्रत्यरोपण के लिए तो हर ओर्थोपेडिक सर्जन का हाथ खुजला ही रहा है. 

डॉक्टर खुद तो अपने स्वास्थ्य का ख्याल खान-पान से करते हैं पर रोगियों को सिर्फ दवा पर निर्भर रहने की सलाह देते हैं. बहुत ही गया बीता डॉक्टर होगा जो अपने शरीर का ख्याल न रखता हो. पर वो कभी मरीज़ को प्राणायाम या योग की सलाह नहीं देगा. खुद तो जिम जा कर अपना पसीना बहा लेगा पर क्या मजाल की मोटे लाला को वर्जिश की सलाह दे. बोलता है लाला तू खाए जा, मै हूँ ना.

बहुत पहले अमिताभ की एक फिल्म आई थी जिसमें उन्होंने सुबह उठ कर कसरत करने की सलाह बहुत ही बढ़िया ढंग से दी थी. उसका आशय कुछ इस प्रकार था कि जिसने उगता सूरज नहीं देखा वो लेटे-लेटे ही तकिया पर सर रक्खे-रक्खे ही उगता सूरज देखेगा. उस समय ये बात मेरे पल्ले नहीं पड़ी थी. अब जब मेरे पास तोंद जैसी चीज़ का अविर्भाव हो चुका है, मै उस गीतकार को उगते सूरज की कल्पना के लिए कोई भी रत्न देने को तैयार हूँ. ये बात अलग है की हम भारतवासी अक्सर डाक्टरी सलाह के बाद ही सूर्योदय देखने का प्रयास करते हैं.    

यहाँ ये बताना भी ज़रूरी है भारत विषमताओं का देश है. जहाँ लोग खा-खा के मर रहे हैं, वहां भूख से मरने वाली खबरें भी यदाकदा आती रहतीं हैं. ये बात दीगर है कि सरकारें उनकी लीपा-पोती में लग जातीं हैं. जहाँ थुलथुल शरीर में मोटे नज़र आते हैं वहां कुपोषण से त्रस्त बच्चे भी भयावह भविष्य का संकेत देते हैं. मुझे लगता है जहाँ फ़ूड फॉर आल आज़ादी के साठ दशक बाद भी सपना है, वहां अति-आहार को राष्ट्रीय अपराध की श्रेणीं में डाल देना चाहिए. अमीर आदमी दिन में दाल तो खाता ही है और रात में चिकेन तोड़ने से भी बाज नहीं आता. गरीब का तो प्रोटीन दाल से ही आता है और भाई का सरप्लस प्रोटीन को ना पचा पाने के कारण यूरिक एसिड बढ़ जाता है. इसलिए देश की खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से हर व्यक्ति के बॉडी-मास  इंडेक्स के अनुसार डायट चार्ट बनना चाहिए. उसी हिसाब से खुराक तय होनी चाहिए. जैसे कोई भी आदमी ज्यादा अमीर दूसरों का हक मार के ही बन सकता है वैसे ही मोटापा दूसरे के हिस्से का खाना खाने से बढ़ता है. मेरे शरीर का जो दो इंच फैट बढ़ा है, वो निश्चय ही किसी और के काम आ जाता अगर मैंने पहले ही उसे बाँट दिया होता. अब सुबह-शाम जोग्गिंग करके भी उसे गलाना मुश्किल हो रहा है. मेरे एक मित्र जापान में कुछ वर्ष बिता के लौटे हैं. बता रहे थे की वहां हर आदमी का हेल्थ इंश्योरेंस होता है. उसका प्रीमियम बॉडी-मास इंडेक्स के अनुसार घट या बढ़ सकता है. अगर आप अपने स्वास्थ्य के लिये चिंतित नहीं हैं तो बीमे की अधिक राशि पे कीजिये. हमारे देश के नियंता वैसे तो ब्लॉग पढ़ते नहीं पर उम्मीद है कुछ सरकारी आला अफसरों की निगाह इस पर पड़ जाये. स्वास्थ्य के प्रति लापरवाह लोगों को कुछ तो पेनाल्टी लगनी ही चहिये, इस आशय से मै इस विचार को चेप रहा हूँ. विचार कौन सा मेरा वो चाहें तो क्रेडिट ले लें. 

कल सुबह हो सकता है मुझे शर्मा जी के कोप का भाजन बनना पड़े. पर समृद्ध और स्वस्थ भारत के लिए मै ये मोर्चा भी झेल लूँगा. शर्मा जी को नाराज़ भी नहीं कर सकता, उन्हीं जैसे सुधी पाठकों के लिये ही तो मै उदगार व्यक्त करता हूँ. शर्मा जी अब कम से कम ये नहीं कह सकते वाणभट्ट की बात में वज़न नहीं है.  

- वाणभट्ट 

पुनश्च: इस लेख का आशय स्वास्थ्य के प्रति लोगों को जागरूक करना है ना कि मोटापे से ग्रस्त किसी का मजाक उड़ना. आशा है पाठक इसे इसी सन्दर्भ में पढेंगे. 

रविवार, 19 फ़रवरी 2012

नथिंग पर्सनल अबाउट इट

ऑफिस से घर आया ही था कि बच्चों ने काम लगा दिया. पापा परेड से कोई किताब लानी है. हम शहर के बाहर रहने वालों को कोई शहर जाने को बोले तो बुखार आ जाता है. बच्चों की पढाई का मामला था, सो जाना ही पड़ता. बच्चों की भी कोई साजिश लगती है कि बाप को घर पर न रहने दो. रहेगा तो कुछ न कुछ उल्टा-पुल्टा काम लगाये रहेगा. श्रीमती जी से सेटिंग इतनी तगड़ी है कि क्या बताएं. घर में कुछ गड़बड़ हो जाये, शीशा टूट जाये, शो-पीस ध्वस्त हो जाये, रिमोट काम करना बंद कर दे, पेलमेट उखड आये, अलबत्ता तो मुझे पता ही नहीं चलेगा. और चल भी गया तो किसकी कारस्तानी है, ये पता करना तो नामुमकिन है. गैंग के तीनों मेंबर, मेरी बीवी, बेटा और बेटी, मुस्कराते रहेंगे पर क्या मजाल कि जुबान खोल दें.


यहीं पता चलता है कि लड़कियाँ बाप को क्यों प्रिय होती हैं. जब मेरे गुस्सा करने कि सम्भावना न्यून स्तर पर होती है, (दो-तीन दिन बाद मै जब घटना को भूल चुका होता) तब वो मेरी गोद में बैठ बड़ी मासूमियत से पूरी घटना को पुनर्जीवित करती है. जब कोई ऐसी घटना या दुर्घटना घटती तो उनका प्रयास होता कि ऑफिस से लौट कर पापा को कुछ देखने-सोचने-समझाने का मौका न दो. वर्ना चाय तो बुड्ढा बाद में पियेगा, प्रवचन पहले पिलायेगा. यहाँ ये बताना आवश्यक है कि मेरे घर में बच्चों कि पिटायी बिल्कुल नहीं होती. और गुस्से में तो कतई नहीं. कभी-कभी उनकी पीठ की सहन शक्ति बढ़ने के लिए एकाध धौल ज़रूर मार देता हूँ, ये बताने के लिए कि बेटा हमारे गुरु और पडोसी भी हमें इतना स्नेह दिखाने से नहीं चूकते थे. तात्पर्य ये है कि मै भारत वर्ष में उपलब्ध बच्चों को ठोंकने-पीटने की इस सुविधा का सदुपयोग नहीं कर रहा हूँ. और अपने आप को पुरातनपंथी बापों की श्रेणी से अलग रखता हूँ.

जब आते-आते ही मेरा काम लगाया गया तो सशंकित भाव से मैंने चारों ओर दृष्टि घुमाई. सब चीजें सही-सलामत लग रहीं थीं. सारे शो-पीस यथावत रक्खे थे. एक भी शीशा क्रैक नहीं लग रहा था. सरसरी निगाह से मैंने पूरे घर का आँकलन कर लिया. फिर इस नतीजे पर पहुँचा कि कभी-कभी इनकी डिमांड जिन्यून भी होती होगी. गैंग मेरी गतिविधियों को ओंठ भींचे भाँप रहा था. आश्वस्त हो के मैंने कहा "भाई कुछ चाय-पानी तो पी लेने दो". बच्चों की माता जी तुरंत आगे आ गयीं "अरे, पापा को थोडा रेस्ट तो कर लेने दो. घर घुसते ही तुम लोग फरमाइश रख देते हो. मै अभी चाय ले कर आई. हाँ, जब शहर जा ही रहे हो तो बच्चों के लिए पिज्जा लेते आना. इन्हें पिज्जा पसंद है. हम लोग भी वही खा लेंगे. दो लोगों के लिये अलग से क्या पकाना." तीनों आँखों ही आँखों मुस्कराए. मै समझ गया मेरा बकरा बन चुका है. यहाँ ये बताना जरूरी है कि तब तक स्विग्गी-ज़ोमैटो का आविर्भाव नहीं हुआ था और डोमिनोज़ का पहला आउटलेट नवीन मार्केट के पास कहीं हुआ करता था.

श्रीमती जी ने जल्दी जल्दी चाय-पानी-नाश्ता कराके मुझे गेट के बाहर कर दिया. बच्चे भी बहुत विनम्र भाव से बाय करने के लिये आ गये. उनकी आँखों में जो चमक थी वो बाप को जानबूझ का बेवकूफ बनने के लिये प्रेरित करती है. आखिर उन्हीं की ख़ुशी के लिए तो इतने बवाल पालने पड़ते हैं. 

शहर कोई पंद्रह किलोमीटर दूर था. कानपुर जैसे शहर की ख़ासियत है की अगर आपको ज़ल्दी है तो आप यात्रा का लुफ्त नहीं उठा सकते. इस शहर का मज़ा लेना है तो जाम को एन्जॉय करना सीखिये. यहाँ दूरी किलोमीटर में नापना बेमानी है. दो किलोमीटर की दूरी में दो घंटे भी लग सकते हैं. उस दिन किस्मत साथ थी, लिहाज़ा मैंने ये यात्रा तक़रीबन पैंतालिस मिनट में ही पूरी कर ली. पंद्रह मिनट पुस्तक की दुकान खोजने में और पंद्रह मिनट दुकानदार को किताब खोजने में लग गये. घर से निकले मुझे पूरे सवा घंटे हो गए थे. जब पेमेंट के बाद किताब मेरे हाथ में आई, तब पहली बार मेरे पेट के निचले हिस्से ने कुछ दस्तक दी.

जल्दबाजी में ऑफिस से लौट कर मै फ्रेश होना भूल गया था. ऊपर से दो गिलास पानी और एक कप चाय ने अब अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया था. दुकान वाले से पूछा "भाई कोई जगह है, यहाँ खाली होने की". दुकानदार मुस्कराते हुए मेरी तरफ मुख़ातिब हुआ "क्या साहब जगह ही जगह है. मार्केट से बाहर निकल कर बायीं हाथ एक पतली गली है. वहाँ की आबोहवा थोड़ी ठीक नहीं है, पर क्या करें. म्युनिसिपल कारपोरेशन ने मार्केट बनाते समय इस बात पर विचार ही नहीं किया. हम तो वहीं जाते हैं, एक नंबर के लिए. दो नंबर के लिए तो रेलवे स्टेशन तक जाना पड़ता है". आबोहवा की बात सुनते ही मैंने उस गली में घुसने का विचार त्याग दिया. रेलवे स्टेशन कम से कम २ कि.मी. दूर था पर वहां जाम लगाने का अंदेशा भी अधिक था. सोचा मार्केट से कुछ दूर जा कर प्रयास करूँगा.           

आते समय मार्केट जो कुछ खाली-खाली था. समय के साथ अपने पूरे शबाब पर आ चुका था. मेरी मारुति 800 से सटा कर किसी ने अपनी कार लगा दी थी. मैंने मन ही मन उस कार वाले को क्या-क्या कहा प्रबुद्ध पाठक समझ ही रहे होंगे. पर मेरी स्थिति का आँकलन वो ही कर सकता है जो इस परिस्थिति से गुजरा हो. और इस जीवन में सभी के साथ ऐसा ज़रूर हुआ होगा. तभी मुझे पिज़्जा की याद आ गयी. वो भी तो लेना था. चलो जब तक ये कार हटे, ये काम भी निपटा लूँ. ये सोच कर मै रेस्टोरेंट की ओर बढ़ गया. एक उम्मीद थी की शायद यहाँ कोई जुगाड़ बन जाए. घुसते ही मैंने अपने निर्दिष्ट स्थान के लिए जानकारी माँगी. बैरे ने जैसा मुँह बनाया, उस स्थिति में मेरे मन-मस्तिष्क पर संडास की शक्ल कौंध गयी. शायद ऐसी ही परिस्थितियों के लिए मुहावरा सावन के अंधे को हरा ही हरा दिखाई देता है रचा गया होगा. मुझे संडास की दरकार थी सो हर तरफ वही नज़र आ रहा था. बोला "है न वो मार्केट के बगल में पतली वाली गली. बायें हाथ को". मुझे अब समझ आया कि बेचारे कि शक्ल वैसी क्यों बन गयी थी. वहाँ कि आबोहवा संभवतः उसके जेहन में घूम गयी हो. घर अभी भी डेढ़ घंटे की दूरी पर था. एक घंटा यात्रा का और आधा घंटा पिज्जा बनने का. 

पिज़्जा का आर्डर दे कर मैंने सोचा चलो जब पूरा मार्केट उस गली को कृतार्थ कर रहा है तो हम भी कोशिश कर के देख लें. फर्स्ट हैण्ड निरीक्षण में ही असली बात पता चलती है. गली जैसा लोगों ने बताया था, वाकई पतली थी. और उसकी तरावट को गली के मुहाने से ही महसूस किया जा सकता था. मुझे अनायास एक शेर याद आ गया, ये इश्क नहीं आसाँ बस इतना समझ लिए, एक आग का दरिया है और डूब के जाना है. तैरने के फन में मैं वैसे भी कुछ कम ही माहिर हूँ, सो ये इरादा मुझे ड्रॉप करना पड़ा. और ये मामला भी इश्क़ का नहीं था. पिज़्जा पैक करवा के जब तक मै लौटा मेरी खुशकिस्मती से वो कार हट रही थी और दूसरी वहाँ लगने की फ़िराक़ में तत्पर खड़ी थी. मैंने दौड़ कर कार लगाने वाले को रोका. बहुत ही भला मानुस रहा होगा जो मेरी बात को उसने नज़रंदाज़ नहीं किया. वर्ना भारत के अन्य शहरों की तरह इस शहर में भी बदतमीजों की सँख्या में बेतहाशा वृद्धि हुयी है. बड़ी गाड़ी वालों का बस चले तो सारी पृथ्वी को मारुति 800 विहीन कर दें. उनके विचार से ऐसे लोगों को कार रखने का कोई अख़्तियार है जो वक्त के साथ कार बदल न सकें. खैर ये समय विवेचना का नहीं था. मेरे लिए कार को शीघ्रातिशीघ्र बाज़ार से दूर ले जाना अत्यावश्यक था. 

लेकिन बाज़ार अब तक जाम की स्थिति में आ चुका था. सडकों का हाल तो पूरे यू.पी. में एक सा ही है. विश्व बैंक ने पता नहीं कितना रुपया शहरों में सीवर व्यवस्था के उत्थान के लिए दे दिया है. क्या कानपुर, क्या इलाहाबाद, क्या वाराणसी पूरा का पूरा शहर खुदा पड़ा है. एक शायर ने तो यहाँ तक कह दिया, यहाँ भी खुदा है, वहां भी खुदा है, जहाँ नहीं खुदा है वहाँ कल खुदा मिलेगा. मार्केट की सड़क भी कुछ ऐसी ही स्थिति से दो-चार हो रक्खी थी. मेरी बानगी ये थी कि हर आहट पे समझूँ वो आय गयो रे. ख़ैर शनै-शनै मै जाम के क्षेत्र से बाहर आ गया. पर उस दिन जिंदगी में पहली बार मुझे सोडियम लैम्प कि जगमगाहट से वितृष्णा सी हुई. दूर-दूर तक ये लाइट रोशन थी और मुझे तलाश थी एक अदद अँधेरे की.

सड़क भी वीआईपी थी. डीएम से लेकर पुलिस के आला अफसर सब उसी सड़क पर रहते थे. तभी आमिर का विज्ञापन भी याद आ गया. शर्म के ताज वाला. मुझे लगा की जैसे ही मै शुरू हुआ कोई ताज ले के मुझे पहनाने न आ जाये. और फोटो भी न खींच ले. और कल के अखबार में मै सुर्ख़ियों में न आ जाऊं. ये हिन्दुस्तानी हीरो ज़मीनी हक़ीक़त से कितनी दूर रहते हैं. खुद तो चलते हैं ऐसी गाड़ी में जिसमें पूरा घर चलता है, ड्राइंगरूम, बेडरूम, किचेन, बाथरूम और टॉयलेट भी. और दूसरों को प्रवचन देते हैं कि देश की नाक इस लघु कर्म से छोटी हो जाती है. कहते हैं कि इससे इनक्रेडिबल इंडिया कि छवि को धक्का लगता है. अरे भाई कोई इन्हें ये बताये कि ये देश इनक्रेडिबल ही इन्हीं कारणों से तो है कि जहाँ चाहे वहाँ थूको और जहाँ जो चाहो वहाँ वो-वो करो, जिस पर दूसरे देशों में पेनाल्टी लग जाती है. उनकी आज़ादी भी कोई आज़ादी है लल्लू. पूर्ण स्वतंत्रता का हमारा देश आज़ादी के पहले से कायल रहा है. अगर इस विद्रोह को करके लोग क्रांतिकारी कहलाते तो उस समय मेरी अदम्य इच्छा क्रन्तिकारी बनने की कर रही थी. मुझे आमिर पर भी बहुत गुस्सा आ रहा था. पहले जन-सुविधायें बनवाओ फिर एड करो. फिर चाहे मुझे इस जघन्य अपराध के लिए जेल भेज दो या सूली चढ़ा दो, बुरा नहीं मानूँगा. 

जैसा की मैंने पहले भी कहा था, उस दिन मेरी किस्मत बहुत अच्छी थी. एक सोडियम पर अँधेरा था. मेरी बांछें खिल उठीं. अपनी 800 और खम्भे की आड़ में मुझे जो सुख मिला वो वाकई इनक्रेडिबल था.

- वाणभट्ट                               
        

सोमवार, 6 फ़रवरी 2012

आज का युवा

आज का युवा

आज का युवा 
अपनी परिपक्वता को
तमगे की तरह
लगा के चलता है

उसे कुछ ही समय में 
आकाश छूना है

दौड़ लगी है
और हर कोई जीतना चाहता है
जब कि
मालूम है कि पिरामिड की नोक 
पर खतरा है किसी भी तरफ 
लुढ़क जाने का 

एवरेस्ट की चोटी पर
सिर्फ एक की जगह है
फिर भी असमंजस और अज्ञान से भरा वो 
दौड़ रहा है
एक मरीचिका से दूसरी 
फिर तीसरी की ओर
असमंजस को तो मानता है
पर अज्ञानता से अनभिज्ञ है

और पथ प्रदर्शक बुजुर्ग
अभी भी जकडे हैं 
जंग लगी रुढियों में
जो रोकतीं हैं 
उन्हें आकाश छूने से 

ये जोश भरे
युवा चमकना चाहते हैं
पिरामिड की चोटी पर
कुछ पल के लिए ही सही

ये धड़कती जवान रूहें
कम समय में 
कुछ कर गुजरना चाहतीं हैं
गुमनाम या गुमशुदा जीवन 
इनको नहीं गवारा
ये तो 
पल भर में दुनिया पलटना चाहतीं हैं


यही जूनून है
जो देश को आगे ले जायगा
इसी का तो
कब से इंतज़ार था


- वाणभट्ट 









गुरुवार, 19 जनवरी 2012

हामिद का चिमटा

हामिद का चिमटा

पूरी पार्किंग में मेरी कार अलग ही दिखाई देती है. अपने इर्द-गिर्द खड़ी गाड़ियों पर नज़र डालते हुए मेरे दिल में एक सुखद भाव अनायास तैर गया. हर तरफ नये-नये मॉडेलों की कारें खड़ी हुईं हैं. जब से ये पे कमीशन आया है हर तरफ सम्पन्नता का दौर दिखाई देने लग गया है. सरकारी लोग जो कभी अपनी दरिद्रता का बखान करते नहीं अघाते थे. अब नयी-नयी गाड़ियाँ फ्लौंट करते घूम रहे हैं. भाई जब कमा रहे हैं तो छिपाना कैसा. ये बात दीगर है कि उन्हीं के प्राइवेट काउंटर पार्ट उनसे चार गुनी ज्यादा तनखाह उठा रहे हैं. पर सरकारी लोगों के लिए यही काफी है कि वो अपने अड़ोसियों-पड़ोसियों से कुछ ज्यादा कमा रहे हैं. और बात जब रौब गांठने की हो तो गाड़ी ही एक मात्र स्टेटस सिम्बल है. जब से ब्रांडेड कपड़ों और फैशन अक्सेस्सरिज़ का चलन बढ़ा है, बन्दों को  (और बंदियों को भी) देख कर उनकी औकात का पता लगाना मुश्किल हो गया है. काल्विन क्लेन या रे-बैन के चश्मे होंगे. गले में तनिष्क की मोटी सी चेन. ला-कोस्ट या एड़ीडैस ( जिसे मै लाकोस्टे या आदिदास समझता था) की शर्ट. ली/लेविस/लीकूपर की जींस. नाइकी या रीबाह्क (जिसे मै नाइके या रिबोक बोलता था) के जूते. मोज़े हेंस या पुमा के. बेल्ट कोच या ट्रअफलगर की. यहाँ तक की अंतर्वस्त्रों की बात होगी तो जॉकी के होंगे या डीज़ल के. जैकेट या स्वेटर होंगे तो रेमंड या मोंटे कार्लो के. रोलेक्स या अरमानी की घडी. यानि आदमी पूरा चलता-फिरता ब्रांड अम्बेसडर बना हुआ है. बहुत कठिन हो गया है आम और अमरुद आदमी में फर्क करना.

कुछ लोगों ने दूध और पानी को अलग करने के लिए स्वान (यानि हंस) विधि अपना ली है. यदि आदमी को पहचानना हो तो देखो वो किस गाड़ी से उतरा है. उसी के अनुसार उनको आदर-सत्कार पाने का हक है. वैसे ये बात पार्टी या उत्सवों पर ही लागू होती है. दफ्तरों में तो हर कोई हर किसी की हर बात जानता है. इसलिए ये बात यहाँ लागू नहीं होती पर खानदानी रईस दिखने के लिए नफासत को पोर-पोर से झलकना चाहिए. और इसकी प्रैक्टिस के लिए ऑफिस से मुफीद कोई जगह हो सकती है क्या भला. सो ब्रांडेड आदमी जब अठलखिया कार से उतरता है तो पूरे दिन इसी खुमार में घूमता है की शाम को फिर इसी में सवार हो कर वो लोगों के दिलों पर लोटता सांप छोड़ कर पुनः अपने बिल में घुस जायेगा.

जैसे खरबूजे को देख कर खरबूजा रंग बदलता है, फिजां में नयी-नयी कार लेने की बयार चल पड़ी. व्यापारियों में तो चलन तीस लाख से ऊपर वाली कारों का चल गया पर बाबू लोग आठ-दस लाख पर ही अटक गए. बच्चों की पढाई और उनकी शादी का ख्याल एक नौकरी-पेशा आदमी को खुल कर ऐय्याशी भी नहीं करने देता. और वैसे भी इन्हें कार चलाने से ज्यादा दिखाने की फ़िक्र हुआ करती है. अड़ोसी-पडोसी ने देख ली और यार-दोस्तों ने थोड़ी तारीफ़ कर दी तो इनका पैसा लगाना स्वारथ हो गया. अब टोयोटा, फोक्सवैगन, फोर्ड, निसान, पोर्सा, स्कोडा आदि एवं इत्यादि मिडिल क्लास इंसानों को लुभाने में लगे हैं.

ये पार्किंग किसी ऑफिस की नहीं थी. मिस तनरेजा के तीसरे पति के भाग और चौथे पति के मिल जाने की ख़ुशी में पार्टी रक्खी गयी थी. कैम्पस के सामुदायिक मिलन केंद्र में. मिस तनरेजा इस तरह के उत्सवों को बेहद सादे तरीके से मनाना पसंद करतीं थी. वर्ना वो ये पार्टी लैंडमार्क में भी दे सकतीं थीं. पर इससे, होने वाले वर को अपनी महत्ता का गुमान होने का शक हो सकता था. हाँ वो नयी-नवेली दुल्हन की तरह पोशाक बनवाना  कभी न भूलतीं. और अपने विभाग तथा इष्ट-मित्रों को अपनी इस ख़ुशी में अवश्य शामिल करतीं. मै उनके इस उपलक्ष्य में आयोजित प्रीति-भोज में पधारा था. मुझे अपनी बेवकूफियों पर उतना ही गर्व है जितना समझदारों को अपनी समझदारी पर. ऊपर वाले ने मुझे ये नेमत दी है कि मै बड़ी आसानी से अपने आप को किसी भी प्रचलित चूहा दौड़ से अलग रख सकूं. इसीलिए जब लोग अपनी नव-अर्जित समृद्धि को लिबास और दिखावे पर खर्च करते, मै फक्कड़ी को अपनी ढाल बना के चलता. सो होंडा और टोयोटा के ज़माने में मारुती-८०० रखना और उस पर फक्र करना मुझ जैसे बिरले इंसान के ही बस की बात है. पाठकगण यदि मै अपनी शान में कुछ ज्यादा कह गया हों तो माफ़ कीजियेगा. और यदि आप भी दिखावे के ज्वर से पीड़ित हों तो इसे अनर्गल प्रलाप समझ कर मेरी मानसिकता को कोसने का मौका अपनी टिप्पणियों में मत छोड़ियेगा. पर मै क्या करूँ, मै ऐसा ही हूँ.

हाँ तो मै मिस तनरेजा कि पार्टी अटेंड करने आया था. १९९५ का मॉडल जो मैंने सन २००० में सेकेण्ड हैण्ड ख़रीदा था, उसे २०१२ तक मेंटेन करने का गुरुर वो ही समझ सकता है जिसने मशीन का दिल देखा हो. कोई भी मशीन बूढी नहीं होती नयी-नयी तकनीकें आ जातीं हैं. कुछ सुविधाएं बढ़ जातीं है. आज भी जब मै अपने पी-फोर कंप्यूटर पर काम करता हूँ तो महसूस करता हूं कि माइक्रोसोफ्ट के सोफ्टवेयर के लिए बार-बार हार्डवेयर बदलना कहाँ की समझदारी है. जबकि प्रोसेस्सर नहीं मेरी खुद की स्पीड मेरी कार्य की गति निर्धारित करती है. बहरहाल मैंने अपने चारों ओर विराजे ने वाहनों में विद्यमान नयी तकनीकों पर प्रसंशा की एक दृष्टि डाली. मन ही मन अपनी मेंटेनेंस को भी सराहा और पार्टी स्थल की ओर कूच कर गया. 

वहां उपस्थित सभी अतिथियों ने भी मेरे आने को भली-भांति नोटिस कर लिया था. पुराने साइलेंसर कुछ कम काम करते थे. कुछ लोग मुस्करा रहे थे. कुछ कमेन्ट मार रहे थे "लो आ गया फटीचर". मैंने उन सबको अनसुना करके मिस तनरेजा और उनके नये पति को बधाई देना उचित समझा. हद तो तब हो गयी जब मिस तनरेजा ने मेरा इंट्रो अपने पति से करवाया. "हनी, ये वर्मा जी हैं, हमारे यहाँ वैज्ञानिक के पद पर काम करते हैं. एकदम ज़मीन से जुड़े इंसान हैं". पतिदेव को देख कर जितना मै मुस्कराया उससे कहीं ज्यादा वो मुस्कराए. मुझे लगा शायद मेरी पर्सनालिटी से इम्प्रेस हो रहे हैं. पर भाई साहब क्या बताएं भैंस मुंह खोलेगी तो गाना नहीं गाएगी. उनके मुंह से निकला "वही मारुती-८०० वाले, बहुत नाम सुना है आपका". मुझे ये कतई गुमान नहीं था की मै इस विशेषण से भी जाना जाता हूँ. पीछे से लोगों के ठहाके मेरे कानों में गूंज गए. मिस तनरेजा के मुख का वो हाल था कि 'शोभा वरननी न जाई'.  

मै मुस्कराया और बोला "जी हाँ मै वही मारुती वाला हूँ. लोग प्यार से मुझ फटीचर भी कहते हैं. पर सच ये है कि हिंदुस्तान और विशेषकर कानपुर  के लिहाज़ से मारुती ही एक कम्प्लीट कार है. छोटी सी कार है कहीं भी पार्क कर लो. जाम में आसानी से निकल जाती है. पूरे शहर में चाहे एक लाख की गाड़ी हो या पचास लाख की सब ठुंकी हुई हैं. और तो और मोटर चोरों की नज़र भी नयी कारों पर ही होती है. आप लोग भी नयी कार को पार्क करके न तो चैन से शौपिंग कर पाते हैं, न ही पार्टी का मज़ा ले पाते हैं. महँगी गाड़ियों के स्पेयर भी मंहगे होते हैं इसलिए उन्हें मेंटेन करने में भी काफी खर्च हो जाता है. अपनी मारुती तो सस्ती, सुन्दर और टिकाऊ भी है. आप सबने लोन ले कर ये मंहगी-मंहगी गाड़ियाँ सिर्फ शोशेबाजी के लिए खरीदी है. जबकि मैंने अपनी आवश्यकता के लिए. हर कंपनी अपनी कार में नयापन लाने के लिए अजीब-अजीब से शेप निकाल रहीं हैं. सबका कम्पटीशन मारुती से है. आप लोग चाहे कितना भी हँस लें मुझ पर, पर जब भी नयी कार में स्क्रैच लगता है, आप लोगों का दर्द मै बयां नहीं कर सकता. मारुती कल की गाड़ी थी, आज की गाड़ी है और कल की गाड़ी भी रहेगी." मेरे इस धारा प्रवाह उद्बोधन को पार्टी में उपस्थित लोग विस्मयादिबोधक चिन्ह के साथ सुनते रहे. मुझे लगा मारुती को मुझे अपना सेल्समैन रख लेना चाहिए.  

बाद में खाना खाते समय फुल्कों को देख कर मुझे हामिद का चिमटा याद आ गया. अंगूर खट्टे हों ऐसा भी नहीं है.    

- वाणभट्ट

* मुंशी प्रेमचंद के 'ईदगाह' को सादर समर्पित.


   
                                 

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